अमेरिकी राजनीति में भारतीय लोग (प्रभात खबर)

वप्पला बालाचंद्रन, पूर्व विशेष सचिव, कैबिनेट सेक्रेटेरियट


सेंट जेवियर पालाथिंगल छह जनवरी को वाशिंग्टन में हुई ट्रंप रैली में भारतीय झंडा लहराते हुए दिखे थे. बाद में यह रैली उग्र हो गयी और इसने अमेरिकी कांग्रेस की इमारत पर हमला कर दिया था. विंसेंट ने हमारी मीडिया को बताया है कि त्रिशूर के इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ाई करने के बाद वे 1992 में अमेरिका चले गये थे. उनका दावा है कि वे वर्जिनिया में रिपब्लिकन पार्टी की स्टेट सेंट्रल कमेटी के सदस्य हैं और वे 'चुनावी धांधली' के विरोध में ट्रंप रैली में शामिल हुए थे.



उनका कहना है कि पहले वे डेमोक्रेट समर्थक थे और उन्होंने बराक ओबामा को दो बार वोट दिया है. विंसेंट का यह भी दावा है कि कुछ उपद्रवी रैली में घुस आये थे, अन्यथा रैली शांतिपूर्ण थी. उनका आरोप है कि उपद्रवी वामपंथी एंटीफा या ब्लैक लाइव्स मैटर के सदस्य हो सकते हैं. वे पांच ट्रंप रैलियों में शामिल हो चुके हैं, पर हिंसा केवल इसी बार हुई है. ब्लैक लाइव्स मैटर के प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा के लिए ट्रंप ने हमेशा एंटीफा को दोषी ठहराया था.



बहरहाल, अमेरिकी न्याय विभाग कैपिटोल पुलिस के साथ घटनाक्रम की जांच कर रहा है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि जांच में विंसेंट के दावों को भी परखा जायेगा. अमेरिकी मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक दुनियाभर में दिखाये गये पुते चेहरे और वाइकिंग सिंगों वाले शख्स की पहचान एरिजोना के जैक एंजेली के रूप में हुई है, जो ट्रंप समर्थक है और धुर दक्षिणपंथी समूह 'क्यूएनॉन' का सदस्य है.


इस लेख का उद्देश्य उस घटना के बारे में बात करना नहीं है, बल्कि अमेरिका में मेरे अपने अनुभवों के आधार पर भारतीय अमेरिकियों की राजनीतिक गतिविधियों तथा एक समुदाय में धार्मिक आधारों पर दो दलों में विभाजन पर उनके असर के बारे में चर्चा करना है. अमेरिका में बसे भारतीय 1920-30 के दौर में तारकनाथ दास, हर दयाल, मुबारक अली खान और जेजे सिंह आदि अनेक लोगों के नेतृत्व में राजनीतिक रूप से सक्रिय थे. उनके प्रयासों से दलीप सिंह सौंद के अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य (1957-63) बनने का रास्ता साफ हुआ था, जो नब्बे के दशक तक कांग्रेस के एकमात्र भारतीय सदस्य थे.


वह एक बेहद अहम संघर्ष था, क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध में सभी आप्रवासन रोक दिये गये थे. साल 1946 में ल्यूस-सेलार कानून के तहत भारतीयों को विशेष श्रेणी देकर उनके आप्रवासन की अनुमति दी गयी. यह इंडिया लीग के अध्यक्ष जेजे सिंह के दोनों दलों के कांग्रेस सदस्यों के साथ अभियान चलाने से ही हो सका था. इस कानून को प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन, प्रसिद्ध लेखक पर्ल एस बक और कैलिफोर्निया के पूर्व गवर्नर अपटन सिंक्लेयर का समर्थन भी मिला था.


भले ही इस कानून का झुकाव उत्तरी और पश्चिमी यूरोप के पक्ष में था, पर इससे अमेरिका में रह रहे तीन हजार भारतीयों को लाभ हुआ और उन्हें नागरिकता मिल गयी. साल 1952 में एक आप्रवासन कानून पारित हुआ, जिसमें एशियाई देशों के लिए हर साल महज सौ वीजा देने का ही प्रावधान था.


असली फायदा 1965 में लिंडन जॉनसन के राष्ट्रपति रहते हुए बने कानून से हुआ, जिसमें देशों के कोटा सिस्टम को खत्म कर प्रवासी परिवारों की एकजुटता को बढ़ावा दिया गया, लेकिन दक्षिण एशिया से आये परिवारों की जीवनशैली एकाकी थी और उनकी गतिविधियां मंदिरों-मस्जिदों और दक्षिण एशियाई त्योहारों तक सीमित थीं. भारतीय समुदाय की संख्या तो बढ़ रही थी, पर वह राजनीति से अलग-थलग ही रहा.


अस्सी के दशक में युवा कांग्रेस के पूर्व कार्यकर्ता डॉ जॉय चेरियन तथा उनके साथियों- कृष्ण श्रीनिवास, गोपाल वशिष्ठ, दिनेश पटेल, डॉ सुरेश प्रभु, स्वदेश चटर्जी आदि कई लोगों ने भारतीय अमेरिकियों से राजनीति में भाग लेने का आह्वान किया. इनमें दोनों दलों से संबद्ध लोग थे. उन्होंने 1963 में टॉम डाइन द्वारा स्थापित यहूदी लॉबी समूह की तर्ज पर काम करना शुरू किया.


भारत के हितों को आगे बढ़ाने के इरादे से 1983 में दोनों दलों से जुड़े लोगों का एक समूह बनाया गया. डॉ थॉमस अब्राहम और इंदर सिंह जैसे कार्यकर्ताओं ने भारतीय अमेरिकियों के दायरे को फिजी, गुयाना, सुरीनाम आदि देशों तक बढ़ाया, जहां कभी गिरमिटिया मजदूर ले जाये गये थे. इन्होंने 1989 में वैश्विक भारतीय प्रवासियों का एक संगठन बनाया. इन प्रयासों से भारतीय आप्रवासी अधिक दिखने लगे. ये सभी धर्मनिरपेक्ष और दोनों दलों से संबद्ध थे तथा इनमें सभी धर्मों और समुदायों की उपस्थिति थी.


दुर्भाग्य से इस आंदोलन को पहला बड़ा झटका वरिष्ठ कांग्रेस नेता सिद्धार्थ शंकर रे ने दिया, जो अमेरिका में भारत के राजदूत थे. साल 1993 में उन्होंने 'ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी' को 1893 में विवेकानंद द्वारा शिकागो में दिये गये प्रसिद्ध भाषण के शताब्दी समारोह से अलग कर दिया. कारण यह बताया गया कि यह भारत सरकार का आधिकारिक कार्यक्रम है.


उस समय से भारतीय अमेरिकियों का भाजपा से संबद्ध हिस्सा भारतीय अमेरिकी संगठनों के आयोजनों से दूरी बरतने लगा. दरार बढ़ने के इस सिलसिले को 2014 से और बढ़ावा मिला. प्रधानमंत्री और अन्य उच्च स्तरीय दौरों में भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध या उनके समर्थकों को ही शामिल किया जाने लगा. बाकियों को आमंत्रित नहीं किया जाता.


साल 2016 के चुनाव से ठीक पहले एक नया संगठन- हिंदूज फॉर ट्रंप- का गठन हुआ था. इससे दोनों दलों से संबद्ध लोगों के समूह ने खुद को अलग-थलग महसूस किया. इसका नतीजा यह हुआ कि अमेरिका में भारत के पक्ष में सक्रिय लॉबी कमजोर हुई है और इसका फायदा पाकिस्तान को मिला है, क्योंकि भारतीय अमेरिकी गतिविधियों से गैर-हिंदुओं को हटा दिया गया है.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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