कारोबारी घरानों का बैंकिंग में प्रवेश (हिन्दुस्तान)

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार 

                         

भारतीय रिजर्व बैंक को ट्विटर पर 10 लाख से ज्यादा लोग फॉलो करने लगे हैं। दुनिया के किसी भी केंद्रीय बैंक के पास इतने सारे फॉलोअर्स नहीं हैं। जिस दिन यह खबर आई, उसी दिन एक और खबर आई, जिसने तहलका मचा रखा है। खबर यह है कि रिजर्व बैंक के एक कार्य समूह के उस प्रस्ताव पर सहमति बन गई है, जिसमें कहा गया है कि बड़े कारोबारी घरानों को बैंकिंग कारोबार में सीधे प्रवेश की इजाजत दे देनी चाहिए। मतलब अब टाटा, अंबानी, अडानी और ऐसे ही अनेक दूसरे बड़े सेठ अपने-अपने बैंक खोल सकते हैं। यही नहीं, रिजर्व बैंक के इस वर्किंग ग्रुप ने जो सुझाव दिए हैं, वे मान लिए गए, तो फिर बजाज फाइनेंस, एलऐंडटी फाइनेंशियल सर्विसेज या महिंद्रा समूह की एमऐंडएम फाइनेंशियल जैसी एनबीएफसी कंपनियां सीधे बैंक में तब्दील हो सकेंगी। इनके अलावा भी अनेक एनबीएफसी कंपनियों के बैंक बनने का रास्ता खुल जाएगा, जिनकी कुल संपत्ति 50 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा हो और जिन्हें 10 साल का अनुभव हो। 

रिजर्व बैंक ने इस रिपोर्ट पर सुझाव मांगे हैं, जो 15 जनवरी तक दिए जा सकते हैं, और उसके बाद बैंक अपना फैसला करेगा। इसे लागू करने के लिए बैंकिंग रेगुलेशन कानून में बड़े बदलाव करने होंगे। लेकिन उससे पहले इस विवादास्पद प्रस्ताव पर तीखी बहस होने की पूरी आशंका है। खबर सामने आने के एक ही दिन बाद पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन, पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य और एस एस मूंदड़ा के अलावा अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एसऐंडपी ने भी इस प्रस्ताव पर सवाल उठा दिए हैं। 

रघुराम राजन और विरल आचार्य का कहना है कि बड़े बिजनेस घरानों को पूंजी की जरूरत पड़ती रहती है और अगर उनका अपना बैंक हो, तो इसका इंतजाम करना बाएं हाथ का काम हो जाता है। लेकिन यही समस्या की जड़ भी है। वे कहते हैं कि इतिहास में अंदरखाने का ऐसा लेन-देन हमेशा खतरनाक साबित हुआ है। आखिर बैंक का मालिक ही कर्ज लेकर न लौटाने की सोच ले, तो उसे पकड़ेगा कौन? हालांकि वे मानते हैं कि एक निष्पक्ष और स्वतंत्र रेगुलेटर अच्छे और खराब की पहचान कर सकता है, लेकिन तब रेगुलेटर को सच्चे अर्थों में आजाद होना जरूरी है। उनका यह भी कहना है कि सारी दुनिया की तमाम जानकारी सामने होने के बाद भी, पूरी तरह निष्पक्ष और प्रतिबद्ध रेगुलेटर के लिए भी, सिस्टम के कोने-कोने में झांककर गड़बड़ियां पकड़ना बहुत मुश्किल है। यस बैंक काफी लंबे समय तक अपनी गड़बड़ियां छिपाए रखने में कामयाब रहा।

बैंक अधिकारियों के संगठन एआईबीओसी के पूर्व महासचिव थॉमस फ्रैंको याद दिलाते हैं कि रिजर्व बैंक 1992 से ही बैंक लाइसेंस की शर्तों में लगातार ढील देता जा रहा है। लेकिन तब से अब तक जिन 10 बैंकों को लाइसेंस मिले, उनमें से चार अब अस्तित्व में नहीं हैं। उनका कहना है कि अमेरिका में बड़े कारोबारी घरानों की बैंक में हिस्सेदारी पूरी तरह प्रतिबंधित है। 

पिछले ही साल भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की स्वर्ण जयंती मनाई गई थी। 1969 में जब इंदिरा गांधी सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, तब इन बैंकों के पास देश की जनता का 85 प्रतिशत से ज्यादा पैसा जमा था। सरकार को एक डर था और एक शिकायत थी। डर यह था कि बड़े सेठों के ये बैंक जनता की जमा की गई रकम उन्हीं सेठों के दूसरे कारोबारों में लगाने के लिए बेरोकटोक कर्ज दे सकते थे और अगर धंधा सही नहीं चला, तो पैसा डूबने का खतरा था। और शिकायत यह थी कि ये बैंक सरकार की विकास योजनाओं में खुले दिल से भागीदार नहीं बन रहे थे और खासकर गांवों में व गरीब लोगों को कर्ज देने में कंजूसी बरतते थे।

हालांकि, आजादी के बाद 1949 में ही सरकार बैंकिंग कारोबार को नियंत्रित करने का कानून ले आई थी। फिर भी, 1951 से 1968 तक के आंकड़े चिंताजनक थे। इस दौरान बैंकों से निजी व्यापार और बड़े उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज करीब-करीब दोगुना हो गया था। बैंकों से दिए जाने वाले कुल कर्ज में इसका हिस्सा 34 प्रतिशत से बढ़कर इन्हीं 17 वर्षों में 68 फीसदी हो गया। जबकि खेती को मिला सिर्फ दो प्रतिशत। सरकार का तर्क था कि बैंक अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहे हैं और इसकी सजा के तौर पर ही उनकी कमान ले ली गई है। 1980 में छह और बैंकों का भी राष्ट्रीयकरण किया गया। 

पिछले कुछ वर्षों में बैंकों के डूबे कर्ज या एनपीए लगातार सुर्खियों में हैं। अनुमान है कि लगभग 10 लाख करोड़ रुपये के कर्ज अधर में हैं। राज्यसभा में जुलाई 2018 में सरकार की ओर से दिए गए एक जवाब के मुताबिक, उस साल मार्च में बैंकों के डूबे हुए कर्ज का आंकड़ा नौ लाख 62 हजार करोड़ रुपये था। इसमें से 73.2 प्रतिशत, यानी सात लाख करोड़ से बड़ी रकम उद्योगों को दिया गया कर्ज था। ऐसे में, अब अगर इन्हीं को बैंक खोलने की इजाजत मिल गई, तो क्या होगा, सोचना मुश्किल नहीं है। 

राजन और आचार्य का एक तर्क यह भी है कि इससे कुछ बड़े व्यापारी घरानों की ताकत बहुत बढ़ जाएगी, पैसे की ताकत भी और राजनीति पर असर डालने की भी। डर यह भी है कि कर्ज में डूबे हुए राजनीतिक रसूख वाले व्यापारियों को बैंक का लाइसेंस हासिल करने की जरूरत भी ज्यादा होगी और उनके लिए शायद यह आसान भी हो जाए। कुछ ही साल पहले दो ऐसे उद्योगपति अपने बैंक खोलने की राह पर काफी आगे बढ़ चुके दिख रहे थे, जो आज दिवालिया हो चुके हैं। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि आजादी के बाद से अब तक भारत में कोई भी शिड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंक डूबा नहीं है। अंत में खातेदारों की मदद के नाम पर भरपाई की जिम्मेदारी सरकारी खजाने या करदाताओं की ही होती है। 

इसीलिए जरूरी है कि न सिर्फ बैंक से जुड़े लोग, बैंकों के कर्मचारी और अफसर या खातेदार, बल्कि देश के सभी लोग इस मामले की गंभीरता को समझें और सरकार पर दबाव बनाएं कि इस मामले में दुर्घटना से देर भली वाली नीति ही बेहतर है। वरना दुष्यंत कुमार का यह शेर याद रखें- दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो, तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment