समझ और सवाल (जनसत्ता)

नए कृषि कानूनों के मसले पर किसानों के आंदोलन का दायरा फैलने के साथ अब सरकार के सामने यह चुनौती बड़ी हो रही है कि वह इस मामले को कैसे सुलझाए। फिलहाल किसान और सरकार, दो पक्ष बन गए लगते हैं और इसे कोई आदर्श स्थिति नहीं कहा जा सकता है। दिल्ली पहुंचने के रास्ते में जिस तरह के तौर-तरीकों से किसानों को रोकने की कोशिशें हुर्इं, उसमें बातचीत के बजाय टकराव जैसी स्थिति ही बनी।

इसके बाद दिल्ली में प्रदर्शन की जगह को लेकर खींचतान हुई, लेकिन किसानों से बातचीत और नए कृषि कानूनों के मुद्दे पर उनके भीतर छाई आशंकाओं को दूर करने की कोई गंभीर पहल नहीं हुई। सवाल है कि अगर नए कृषि कानूनों को लेकर सरकार आश्वस्त है कि यह किसानों के हित में है और इससे दूरगामी फायदा पहुंचने वाला है तो इस बात से किसान सहमत या संतुष्ट क्यों नहीं हो पा रहे हैं! गौरतलब है कि किसानों के बीच नए कृषि कानूनों के तहत न्यूनतम समर्थन मूल्य, आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से अनाज, दलहन, तिलहन, आलू, प्याज आदि के हटाए जाने और भंडारण से जुड़ी नई व्यवस्था सहित अनुबंध आधारित कृषि को लेकर गहरी आशंकाएं हैं।

विडंबना यह है कि कृषि ढांचे पर दीर्घकालिक असर डालने वाले इन कानूनों को लेकर सरकार न तो किसानों को समझा पाने में कामयाब हुई है, न इससे जुड़ी आशंकाओं या सवालों पर कोई स्पष्टता दिख रही है। एक ओर सरकार लगातार यह कह रही है कि इन कानूनों से किसानों को काफी फायदा होगा और उनकी आय में बढ़ोतरी होगी, दूसरी ओर किसान इन कानूनों के जमीनी स्तर पर अमल में पड़ने वाले असर के मद्देनजर इन्हें वापस लेने की मांग पर अड़े हैं। नतीजतन, जिन मुख्य बिंदुओं के तहत नए कृषि कानूनों पर विवाद खड़ा हुआ है, वह अपनी जगह कायम है।

क्या यह जटिल स्थिति मुद्दे को ‘ठीक से समझ नहीं पाने’ की वजह से खड़ी हुई है? रविवार को नीति आयोग के कृषि से संबंधित एक सदस्य रमेश चंद ने इसी बिंदु को रेखांकित करते हुए कहा कि आंदोलन कर रहे किसान नए कृषि कानूनों को पूरी तरह या सही प्रकार से समझ नहीं पाए हैं; इन कानूनों का मकसद वह नहीं है, जो आंदोलन कर रहे किसानों को समझ आ रहा है, बल्कि इसका उद्देश्य उलट है। यह राय एक तरह से किसानों के आंदोलन को ‘समझ के अभाव’ का नतीजे के तौर पर देखती है।

संभव है कि नीति आयोग के सदस्य अपनी राय के पीछे कुछ आधार देखते हों। लेकिन अगर इस पर गौर किया भी जाए तो यह स्वाभाविक सवाल उठता है कि आखिर दूरगामी असर वाले इस तरह के किसी कानून को बनाने के क्रम में उसके बारे में प्रभावित पक्षों को समझाने की जिम्मेदारी किसकी होनी चाहिए!

कोई भी कानून अपने निर्माण के दौरान अलग-अलग पक्षों के बीच विचार-विमर्श की किस प्रक्रिया से गुजरता है? एक लोकतांत्रिक ढांचे में किसी बड़े वर्ग के हित-अहित से जुड़े प्रश्नों पर अगर स्पष्टता और सहमति बना ली जाए, तो उससे संबंधित आशंकाओं को दूर किया जा सकता है। सरकार का पास जनप्रतिनिधियों सहित एक व्यापक तंत्र के साथ-साथ प्रचार माध्यमों के सहारे अपने पक्ष को प्रभावित पक्षों के सामने हर स्तर पर रखने की सुविधा है।

अध्यादेश के रूप में आने के समय से ही किसान इस कानून के प्रावधानों का विरोध कर रहे हैं। इस बीच अध्यादेश कानून भी बन गया। लेकिन किसान संगठनों से बातचीत, उनके मुद्दे समझने या अपना पक्ष समझाने के लिए जिस स्तर पर कोशिशें होनी चाहिए थीं, उसमें कमी रह गई। अगर ऐसा हुआ होता तो शायद मौजूदा परिस्थितियों से बचा जा सकता था!

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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