भाजपा के निरंकुशतावादी रवैये में बदलाव पर टिका देश का भविष्य (बिजनेस स्टैंडर्ड)

मिहिर शर्मा 

अधिकतर टिप्पणीकारों ने किसानों के मौजूदा अंसतोष को केंद्र सरकार की तरफ से कृषि नीति में किए गए बदलावों की प्रतिक्रिया के तौर पर ही देखा है। निश्चित तौर पर इस मसले को देखने का यह एक तरीका है। सच यह है कि इस विरोध प्रदर्शन में पंजाब और आसपास के इलाकों से आए किसानों की भागीदारी की व्याख्या इस तरह की जा सकती है कि देश के ये हिस्से मौजूदा खाद्य सब्सिडी एवं सरकारी खरीद व्यवस्था से सबसे ज्यादा लाभान्वित होते हैं।

अपने संघीय ढांचे के समक्ष उत्पन्न हालिया चुनौतियों की शृंखला में एक नई कड़ी के तौर पर भी इस समस्या को देखा जा सकता है।

हाल के वर्षों में दो समकालिक एवं अंतर्संबद्ध प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं और इन विरोध-प्रदर्शनों के लिए ये दोनों प्रवृत्तियां जिम्मेदार हैं। पहली प्रवृत्ति भारत में आंतरिक हस्तांतरण की व्यापक व्यवस्था को संशोधित करने की सरकार की स्पष्ट मंशा है। दूसरी प्रवृत्ति सत्ता के केंद्र दिल्ली में गठबंधन युग के खात्मे की है।


इन दोनों प्रवृत्तियों पर एक-एक कर विचार करते हैं। आंतरिक अंतरण को संशोधित करने से मेरा आशय प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के लिए ढांचा तैयार करने की व्यापक इच्छा से कहीं अधिक है। मेरा मतलब है कि सरकार खुलकर एवं चोरी-चुपके अंतरण के भौगोलिक निर्धारण को बदलने की मंशा भी रखती है। दूसरे नजरिये से देखें तो सरकार अंतरण की मौजूदा भौगोलिक विकृतियों को खत्म करना चाहती है। इस नजरिये से देखने पर यह स्पष्ट दिखता है कि खरीद पर दी जाने वाली सब्सिडी हरित क्रांति से लाभान्वित राज्यों खासकर पंजाब को नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन हाल की कोशिशें यहीं तक सीमित नहीं रही हैं। नीति आयोग की तरफ से चिह्नित 100 आकांक्षी जिलों को लक्षित सहयोग देने से लेकर तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में वरीय


कर्ज वितरण में कटौती के भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के फैसले तक सब्सिडी खर्च करने के तरीके एवं अंतरण के प्रबंधन की एक व्यापक समीक्षा चल रही है।


हम इन चुनौतियों की नैतिकता एवं तर्क को लेकर बहस कर सकते हैं। मैं एक दलील पेश कर सकता हूं जो अपेक्षाकृत संपन्न राज्यों में अर्जित आय गरीब क्षेत्रों पर लगाने के कदम का बचाव करे। लेकिन यह दलील नहीं दी जा सकती है कि हिंदी हृदय-प्रदेश में राजनीतिक जड़ें रखने वाली और अपने राजनीतिक भविष्य के लिए निर्भर एक सरकार ऐसी व्यवस्था बना रही है जिसमें विभिन्न उत्पादक एवं गैर-हिंदीभाषी राज्य निकट भविष्य के लिए दूसरे राज्यों की सब्सिडी का इंतजाम करें।


और यहीं पर दूसरी समस्या आ खड़ी होती है। सच यह है कि बीते दशकों में जनांकिकीय एवं राजनीतिक प्रवृत्तियां ऐसी हैं कि गठबंधन का दौर फिलहाल खत्म होता ही दिख रहा है। खासकर तमिलनाडु, पंजाब या आंध्र प्रदेश जैसे तीसरा मोर्चा वाले बड़े राज्य कुछ समय के लिए नई दिल्ली में सरकारों के गठन में अहम भूमिका निभाएंगे।


भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नजरिये से देखें तो यह राष्ट्रीय विमर्श में अपने बढ़ते हुए वैचारिक प्रभुत्व का महज परिणाम है। दूसरे शब्दों में, भाजपा हरेक हिंदू-बहुल राज्य में एक बड़ी ताकत बनने की मंशा रखती है चाहे वह प्रमुख विपक्षी दल हो या सत्ताधारी पार्टी। इस रूपांतरण को अंजाम देने की प्रक्रिया एकदम सरल है: आप यह धारणा बनाओ कि क्षेत्रीय दलों के नेता अल्पसंख्यक तबके खासकर मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने में लगे रहते हैं और फिर इस तबके को निशाना या बलि का बकरा बनाया जाए और असम के हिमंत विश्व शर्मा जैसे आसानी से तोड़े जा सकने लायक नेताओं को अपने पाले में कर लो। एक बार यह काम पूरा हो जाए तो केंद्र सरकार से उस राज्य पर फंड की भरमार एवं विशेष ध्यान दिया जाने लगता है। यह गठबंधन दौर की तरह उस राज्य के अधिकार या पात्रता का मुद्दा न होकर विवेकाधीन आवंटन जैसा होता है जिसमें साम्राज्यवादी दिल्ली का अतिरेक भी होता है।


इसके साथ समस्या यह है कि यह एक अपरिहार्य प्रतिक्रिया को जन्म देता है। क्षेत्रीय दलों एवं उनके नेताओं के लिए इस प्रवृत्ति से लडऩे का सबसे अच्छा तरीका यही है कि कई दशक पहले भारत को अपनी चपेट में लेने वाले एक तरह के उप-राष्ट्रवाद की तरफ लौटा जाए। संभवत: 2020 में यह भुला पाना आसान है कि इंदिरा गांधी के अहंकार या उनके बेटे राजीव गांधी के गैर-जिम्मेदार रवैये की कीमत भारत ने किस तरह चुकाई। यह एक ऐसा भारत था जिसमें हजारों क्षेत्रीय झाडिय़ों में दिल्ली दरबार के फरमानों की वजह से आक्रोश था। भारत ने खुद ही भिंडरांवाले और उल्फा को पनपने दिया। आज भाजपा का पंजाब से आने वाले किसानों को खालिस्तानी कहकर बुलाना कांग्रेस के ही तत्कालीन कदमों को खतरनाक ढंग से दोहराना है जिसमें किसी भी वैध विरोध को भारत की अखंडता के लिए खतरा बता दिया जाता है। राजीव गांधी ने 1984 के अपने शर्मनाक चुनाव अभियान में देश भर में घूमकर यह प्रचार किया था कि विपक्ष अकालियों एवं आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का समर्थन कर रहा है और इस तरह वे भारत को तोडऩे की कोशिश करने वाले गद्दार हैं।


आज भाजपा और मीडिया में बैठे इसके मददगार पगड़ी पहनने वाले हरेक शख्स से कृषि नीति के बजाय खालिस्तान एवं भिंडरांवाले के बारे में पूछ रहे हैं और इस तरह वे भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं। लेकिन सच यह है कि भारत की एकता एवं अखंडता पर इंदिरा एवं राजीव के समय बने दबाव गठबंधन दौर में किए गए तमाम समझौतों की वजह से काफी हद तक खत्म हो गए। अब सवाल यह है कि क्या 2020 का भाजपा नेतृत्व इस स्तर पर अपने निरंकुशतावादी, बहुसंख्यक-परस्त, हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान वाले रवैये को नरम कर वाजपेयी काल के अपने पूर्ववर्तियों के गठबंधन धर्म को समाहित करेगा? भारत का भविष्य इस सवाल के जवाब पर ही निर्भर करता है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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