पिछली जंगों से पांच जरूरी सबक (हिन्दुस्तान)

अर्जुन सुब्रमण्यम, सेवानिवृत्त एयर वाइस मार्शल 

                                                  

आजाद हिन्दुस्तान में युद्ध और संघर्ष जैसे विषयों पर बीते आठ वर्षों से गहन अध्ययन और लेखन करने के बाद मैं मानता हूं कि देश की सुरक्षा से जुड़े तमाम लोग पांच बडे़ सबक पर गंभीरता से काम करें। इनमें नीति-निर्धारक व नियमों को लागू करने वाले लोग भी हैं और शिक्षाविद व आम जनता भी। चूंकि भारत एक लोकतंत्र के रूप में दिनोंदिन परिपक्व हो रहा है और वैश्विक ताकत बनने की इसकी उम्मीदें भी परवान चढ़ रही हैं, इसलिए इन तमाम पक्षों को यह समझना चाहिए कि मुल्क को गढ़ने और शासन-कला में जंग व फौज का इस्तेमाल किस कदर कारगर होता है।

पहला सबक यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भले ही शांतिपूर्ण विकास का सपना देखा था, लेकिन भारत को अपनी संप्रभुता बचाने और आंतरिक ताने-बाने को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए बेमन से युद्धों में उतरना पड़ा। इसने अपने प्रमुख विरोधियों चीन और पाकिस्तान के साथ चार बड़ी लड़ाइयां लड़ीं और सीमित ही सही, पर एक आक्रामक संघर्ष भी किया। इसको चार उग्र अभियानों (मिजोरम, त्रिपुरा, पंजाब और असम) से भी जूझना पड़ा, जिनमें से पंजाब और असम के तनाव में आतंकवाद की छाया भी दिखी थी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दौर के सबसे बडे़ विद्रोह (नगा विद्रोह) का समाधान तो अब तक ढूंढ़ा जा रहा है, जिसकी अब एक अन्य जातीय बगावत (मणिपुर) से मित्रता हो गई है। वामपंथी चरमपंथ में जरूर ढलान दिखने लगा है, लेकिन इसको खत्म करने के लिए सुरक्षा बलों की मेहनत जारी है। जम्मू-कश्मीर में भारत की हुकूमत तेज व कम होते छद्म युद्ध से, जिसे मैं तमाम संघर्षों की जननी कहता हूं, जूझ रही है। वहां की हिंसा कभी उग्रवाद, कभी आतंकवाद, तो कभी युद्ध जैसी स्थिति में ढलती रही है।

दूसरा सबक यह है कि पड़ोसी राष्ट्रों और विश्व समुदाय द्वारा मदद मांगने पर भारत ने कभी भी अपनी भौगोलिक सीमा के बाहर फौज के इस्तेमाल से परहेज नहीं किया है। श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की कार्रवाई, मालदीव में 1988 के तख्तापलट को विफल करने का हमारा प्रयास, संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियान (इनमें से कई हिंसा के गवाह बने, जिनमें हमारे कई सैनिक शहीद हुए), डोका ला संघर्ष जैसे तमाम उदाहरण हैं, जो एक जिम्मेदार मुल्क के रूप में भारत के विश्व मंच पर स्थापित होने के ठोस संकेत देते हैं।

तीसरा सबक दरअसल पहली सीख के स्वाभाविक परिणाम और भारत के रणनीतिक डीएनए में मौजूद नीतिगत व विकास संबंधी, दोनों प्रकार की दुविधाओं का नतीजा है। एक जिम्मेदार और संयमित ताकत के रूप में उभरने की कोशिश में, जो अपने पथ-प्रदर्शक नेताओं के विचारों व आदर्शों को बनाए रखने का प्रयास करता हो, भारत को वक्त-बेवक्त अपने मुखर एवं हठधर्मी प्रतिद्वंद्वियों से जूझना पड़ा है। नैतिक द्वंद्व की वजह से जहां सैन्य कार्रवाइयों में अमूमन देरी हुई, वहीं विकास संबंधी दुविधा के कारण हम उच्चतम मानक की सैन्य क्षमता विकसित नहीं कर पाए हैं।

मौजूदा भारत में राजनीति, नीति और युद्ध के बीच व्यावहारिक व अटूट संबंधों का चौथा सबक प्राचीन भारत के रणनीतिकार कौटिल्य चाणक्य और 19वीं सदी के शुरुआती वर्षों के प्रशियाई सैन्य विचारक क्लॉजविट्ज की नीतियों से निकलता है। कौटिल्य जहां आम लोगों की भलाई के लिए सत्ता-नायक से ‘सख्त’ व कभी-कभी ‘नैतिकता-निरपेक्ष’ नीतियों की वकालत करते हैं, तो वहीं क्लॉजविट्ज राजनीतिक संस्थाओं, नीति-निर्माताओं और युद्ध में शामिल होने वाले लोगों के बीच मजबूत रिश्ते के हिमायती हैं। क्लॉजविट्ज तो युद्ध की सफलतम रणनीति को शासन-कला का एक बेहद जरूरी हिस्सा मानते हैं।

भारत के पिछले 74 वर्षों के अनुभव इन सबकी पुष्टि भी करते हैं। सन 1971 के युद्ध की व्यूह-रचना और सियाचिन ग्लेशियर पर नजर रखने में सहायक साल्तोरो पर्वतमाला पर कब्जे के कडे़ फैसले ऐसे उदाहरण हैं, जो भारत के पारंपरिक रुख के खिलाफ थे। इसी तरह, कारगिल संघर्ष के दौरान भारतीय सेना को नियंत्रण रेखा पार करने की अनुमति न देने का तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का फैसला राजनीतिक स्पष्टता का एक और उदाहरण है, जिसकी वजह से भारत ने विश्व पटल पर मजबूती से यह बताया कि वह संयमित तरीके से सशस्त्र बलों के इस्तेमाल में सक्षम है।

पांचवां और अंतिम सबक सुरक्षा से जुड़ी हालिया घटनाओं के आधार पर नई नीतियों, रणनीतियों और संस्थागत ढांचों को आकार देने के भारत के प्रयासों को उजागर करता है, ताकि देश मौजूदा सुरक्षा चुनौतियों से पार पा सके। ‘पहला वार’ न करने की नीति से कुछ कदम पीछे हटने व अत्यधिक संयम बरतने के बजाय आक्रामक जवाब देने के प्रति हम इन दिनों इच्छुक दिखे हैं। पूर्वी व पश्चिमी सीमा पर भारत द्वारा हाल में की गई सीमा-पार कार्रवाइयों, पूर्वी लद्दाख में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (चीन की फौज) की भड़काने वाली हरकतों का डोका ला में मजबूत जवाब (हालांकि देरी से दिया गया) इसे साफ-साफ साबित करता है। हमें यह समझना होगा कि रणनीति में की गई किसी बड़ी फेरबदल को यदि कारगर बनाना है, तो एक ऐसे मजबूत पुल की जरूरत पड़ेगी, जो राजनीति, नीति, रणनीति, सिद्धांत, ढांचा और क्षमता को आपस में जोड़ दे। यह रणनीतिक पुल ठीक वैसा होना चाहिए, जैसा प्रसिद्ध अंग्रेजी विद्वान कॉलिन ग्रे ने बताया है। जाहिर है, यह ऐसा पुल है, जिसे हर स्तर पर मजबूत बनाने की दरकार है। 

हाल में जिस तरह से कदम उठाए गए हैं, उनसे यह संकेत मिलता है कि इस तरह के प्रयास सही मायने में ‘टॉप-डाउन अप्रोच’ (शीर्ष पर बैठे चंद लोगों द्वारा नीतियां बनाई जाएं और वह व्यापक तौर पर आम लोगों पर असरंदाज हो) के साथ शुरू किए गए हैं। बेशक इसमें कुछ चूक हो सकती है, क्योंकि भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और संघर्ष-संबंधी विमर्शों में ‘न्यू नॉर्मल’ चाहता है। मगर अतीत के सबक हमेशा हमारा मार्गदर्शन करेंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


सौजन्य - हिन्दुस्तान।

Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment