क्या चाहते हैं किसान, क्यों अपनानी पड़ी दिल्ली चलो' की रणनीति? (अमर उजाला)

नीरजा चौधरी  

सरकार ने किसानों की शिकायतों पर चर्चा करने के लिए एक समिति गठित करने की पेशकश की है। यह प्रस्ताव उसने पंजाब और हरियाणा के किसानों के प्रतिनिधियों को दिया है, जो पिछले सात दिनों से दिल्ली की सीमा पर हजारों की संख्या में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। पिछले तीन महीने से वे पंजाब में रेलवे ट्रैक पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन जब वहां कोई सुनवाई नहीं हुई, तो उन्होंने 'दिल्ली चलो' की रणनीति अपनाने का फैसला किया। काश, सरकार ने तीन महीने पहले इस मामले को एक कमेटी के पास भेजने पर सहमति जताई होती! 


उस समय सहयोगी अकाली दल (भाजपा से संबंध तोड़ने से पहले) ने सुझाव दिया था कि इन तीनों विवादास्पद विधेयकों को संसद की अवर समिति के पास भेजा जाना चाहिए। इससे सरकार को सभी हितधारकों, खासकर किसानों के साथ जुड़ने और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य तरीके तलाशने का समय मिल जाता। इस कवायद से अगर कुछ नहीं भी निकलता, तो कम से कम किसानों को यह जानकर संतोष तो होता कि उनसे संपर्क किया गया था। अब सरकार के पास अवर समिति का विकल्प नहीं है। अब वे विधेयक कानून बन गए हैं। 

उस समय जब सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई, तो भारतीय जनता पार्टी की सबसे पुरानी सहयोगी अकाली दल ने एनडीए छोड़ दिया। उसने किसानों की उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने के लिए सांविधानिक गारंटी देने से सरकार के हठी इनकार का विरोध किया। और अब एक अन्य सहयोगी, राजस्थान की एक छोटी पार्टी, हनुमान बेनीवाल की आरएलपी ने भी, जिसका किसानों के बीच अपना आधार है, एनडीए छोड़ने का एलान किया है। अकाली दल शुरू में तब तक कृषि सुधार के लिए सरकार के कदम का समर्थन करता रहा, जब तक कि उसे कृषि कानूनों के खिलाफ जमीनी भावना की ताकत का एहसास नहीं हुआ था। अकाली नेताओं को चेतावनी दी गई कि अगर उन्होंने कृषि कानूनों

का समर्थन किया, तो उन्हें पंजाब के गांवों में घुसने नहीं दिया जाएगा। 


प्रकाश सिंह बादल का उनके अपने ही गांव में घेराव किया गया, वहां एक किसान ने आत्महत्या कर ली थी। उसके बाद ही पार्टी ने फैसला किया कि उसे हरसिमरत कौर बादल को मंत्रिमंडल से हटाने के अलावा और भी बहुत कुछ करना है। भाजपा का पुराना सहयोगी होने के नाते अकाली दल के लिए ऐसा फैसला करना आसान नहीं था। यह प्रकाश सिंह बादल और अटल बिहारी वाजपेयी की दूरदर्शिता थी, जिन्होंने यह गठबंधन किया था। इस राजनीतिक गठबंधन के पीछे पंजाब में हिंदुओं और सिखों के बीच विभाजन की खाई को पाटने का नजरिया भी था। आखिर भिंडरावाले के उथल-पुथल दौर ने एक समय इस सीमांत राज्य को खासा नुकसान पहुंचाया था। 


हो सकता है कि भाजपा को इन कानूनों के खिलाफ इस तरह के किसान आंदोलन का अंदाज न रहा हो। या यह भी संभव है कि उसने सोचा हो कि इसे संभालने में वह सक्षम है, जैसा कि उसने अतीत में नोटबंदी, जीएसटी लागू करने या अचानक लॉकडाउन लगाकर किया था, जिसके चलते लाखों प्रवासी मजदूर अपने गांव लौट गए। हो सकता है, भाजपा ने यह भी हिसाब लगाया हो कि वह अंतिम क्षण में स्थिति को संभाल लेगी। यदि जरूरत पड़ी, तो 2022 के राज्य विधानसभा चुनाव के बाद वह फिर से अकाली दल के साथ गठजोड़ कर सकती है। 


इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोगों में कितना असंतोष है या कितना आर्थिक संकट है, वह हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के अपने अंतिम कार्ड का इस्तेमाल कर सकती है और इसमें वह कामयाब भी रही है। और जहां वह कामयाब नहीं रही, जैसे कि हरियाणा या मध्य प्रदेश या महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में, उनमें से पहले दो राज्यों में वह जोड़-तोड़ करके सरकार बनाने में कामयाब हो गई। महाराष्ट्र में उसने हार नहीं मानी है। पिछले कुछ वर्षों में, हिंदू-मुस्लिम विभाजन देश के एक बड़े वर्ग के मानस में इतना गहरा गया है कि लोगों ने अपने आर्थिक संकट की अनदेखी करते हुए हिंदू पहचान के मुद्दों पर चुनाव में मतदान किया। यही वह चीज है, जिस पर भाजपा अच्छी तरह से भरोसा कर सकती है। 


हालांकि अब उसने किसानों को बातचीत के लिए बुलाया है, जो स्वागत योग्य कदम है, पर भाजपा में कई लोग मानते हैं कि इससे किसानों की चमक फीकी पड़ जाएगी। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। ऐसे में भाजपा के कुछ नेताओं द्वारा प्रदर्शनकारी किसानों को 'खालिस्तानी' बताना बेहद गैरिजम्मेदाराना है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस और रक्षा बलों में कई इन ग्रामीण समुदायों से आते हैं, और निरंतर असंतोष शायद ही वांछनीय है। कई वजहों से किसान सरकार द्वारा प्रस्तावित समिति के प्रति सशंकित हैं। उन्हें लगता है कि सरकार इसमें ऐसे विशेषज्ञों को रखेगी, जो उनकी मांगों को कुचल देंगे। ऐसा नहीं है कि समिति में आधे प्रतिनिधि किसानों के होंगे और आधे सरकार के तथा कुछ स्वतंत्र विशेषज्ञ होंगे। आखिरकार योगेंद्र यादव जैसे व्यक्ति को सरकार ने बातचीत से हटा दिया। किसानों को लगता है कि सरकार उनकी बात सुनने के बजाय उन्हें अपने विचार समझाना चाहती है जो कि इन कानूनों को अपने लिए खतरे की घंटी मान रहे हैं। उन्हें यह भी संदेह है कि सरकार केवल स्थिति को टालने और उनकी एकजुटता को तोड़ने के लिए समय गंवा रही है।


सरकार का कहना है कि एमएसपी व्यवस्था लागू रहेगी। लेकिन किसान जमीनी हकीकत जानते हैं कि वे एमएसपी से कम दर पर अपनी उपज निजी व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर होंगे। यही कारण है कि वे मांग कर रहे हैं कि एमएसपी को कानूनी रूप से लागू किया जाए, ताकि निजी व्यापारी इस दर से कम कीमत पर उनकी उपज न खरीद सकें। कृषि के निगमीकरण और अनुबंध खेती में इस बात की काफी आशंका है कि किसान अपने ही खेत में मजदूर बन जाएंगे। और वे बड़ी संख्या में शहरों में रोजगार ढूंढने के लिए मजबूर होंगे, जहां नौकरियां बहुत कम हैं। एमएसपी को कानूनी रूप से लागू करने का दूसरा पक्ष यह है कि निजी व्यवसायी कृषि क्षेत्र में संभवतः प्रवेश ही नहीं करना चाहेंगे। यहीं पर सरकार की भूमिका और कौशल काम आएगा। आज सरकार और किसानों के बीच भरोसे की भारी कमी है, वार्ता के दौरान इसे पाटने पर ही कुछ नतीजे निकल सकते हैं। किसान आंदोलन ने एक और बात उजागर की है कि आज देश में एकजुट विपक्ष की कमी है।


सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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