इंसाफ के बजाय (जनसत्ता)

दुनिया के इतिहास में तीन दिसंबर, 1984 के भोपाल गैस कांड को हमेशा एक ऐसी त्रासदी के रूप में जाना जाएगा, जिसमें न केवल घटना के पहले तमाम लापरवाहियां बरती गई थीं, बल्कि उसके बाद जब हजारों लोगों की बेहद दर्दनाक मौत हो गई, तब भी शासन की संवेदनहीनता कम नहीं हुई। यों उसे तब हादसा कहा गया था, लेकिन यह उसके अपराधियों के बख्शने की तरह है, जिनकी लापरवाही की वजह से इतनी बड़ी तादाद में लोगों की जान चली गई और आज साढ़े तीन दशक से ज्यादा गुजर जाने के बाद भी उसकी मार पीड़ितों की जिंदगी पर पड़ रही है।

अफसोसनाक हकीकत यह है कि इतने साल गुजर जाने के बीच अलग-अलग पार्टियों की तमाम सरकारें आई-गईं सबने पीड़ितों के दुख पर संवेदना जताई, लेकिन अब तक वैसा कुछ नहीं किया गया, जिससे उन्हें वास्तविक इंसाफ मिल सके। आज भी उस घटना की सालाना तारीख के मौके पर कुछ कार्यक्रमों का आयोजन होता है, उसमें गैस कांड की भयावहता को याद किया जाता है, सरकार की ओर से औपचारिकता की योजनाओं और राहतों की घोषणा की जाती है और फिर मान लिया जाता है कि पीड़ितों को इंसाफ दिला दिया गया!

सवाल है कि अगर देश के राजनीतिक दल जनता के हित में राजनीति करने का दावा करते हैं तो विपक्ष में रहते हुए या फिर सत्ता में आने के बाद उस आपराधिक लापरवाही के शिकार लोगों को इंसाफ दिलाने के लिए कुछ ठोस कार्रवाई क्यों नहीं करते हैं। इस साल भोपाल गैस कांड के छत्तीस साल पूरे होने के मौके पर गुरुवार को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने उस त्रासदी में जान गंवाने वाले लोगों की याद में स्मारक बनाने और अपने पति को खोने वाली पीड़ित महिलाओं के लिए एक हजार रुपए प्रति महीने पेंशन देने की घोषणा की।

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि घटना के इतने वक्त बाद भी उसके पीड़ितों में से विधवा महिलाओं को एक हजार रुपए पेंशन जैसी मामूली आर्थिक राहत देने या फिर प्रतीक भर के लिए स्मारक बनाने की घोषणाओं के जरिए सरकार अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ले रही है! इतने सालों के बाद आज भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि इस घटना के कितने आरोपियों को इंसाफ के कठघरे में खड़ा किया जा सका या उन्हें सजा दिलाई जा सकी! पीड़ितों को इंसाफ दिलाने का आशय आखिर क्या होता है?

गौरतलब है कि 2019 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ओर से जारी एक रिपोर्ट में भोपाल गैस रिसाव कांड को बीसवीं सदी की ‘प्रमुख औद्योगिक दुर्घटनाओं’ में से एक बताया गया था। उसमें यूनियन कार्बाइड संयंत्र में प्रबंधन की घोर लापरवाही की वजह से भारी पैमाने पर मिथाइल आइसो साइनाइट नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ, जिसमें कम से कम पंद्रह हजार लोगों की दम घुटने से मौत हो गई, उसके कर्मचारियों सहित आसपास की करीब छह लाख आबादी बुरी तरह प्रभावित हुई।

हजारों लोग कई तरह की शारीरिक अपंगता और अंधेपन के शिकार हुए। तब गैस की जद में आए लोगों और उनकी बाद की पीढ़ियों में भी कई गंभीर बीमारियां पाई गई हैं। लेकिन इतने व्यापक और भयावह असर वाली घटना के कुछ आरोपियों को अपराध की गंभीरता के अनुपात में मामूली सजाएं हुर्इं। बल्कि मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन अफसरों या फिर नेताओं की मिलीभगत से देश छोड़ कर भाग गया और 2014 में उसकी मौत हुई। यूनियन कार्बाइड कंपनी के कर्ताधर्ताओं को आज तक इंसाफ के कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सका। लापरवाही, हादसे, अपराध आदि से निपटने के लिए एक व्यापक तंत्र होने के बावजूद भोपाल गैस रिसाव की घटना एक उदाहरण है कि ऐसे मामलों में हमारी समूची व्यवस्था कैसे और किसके हित में काम करती है!

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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