जब देश में टीकाकरण शुरू हुआ (हिन्दुस्तान)

हरजिंदर वरिष्ठ पत्रकार

आप जिस समय ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, ब्रिटेन में कोविड-19 की वैक्सीन लगाने का काम शुरू होने को है। रूस में तो टीकाकरण का काम शुरू भी हो चुका है। भारत में टीकाकरण का काम अभी उतना पास नहीं है, लेकिन जो सक्रियता दिखाई दे रही है, वह बताती है कि वैक्सीन अब भारतीयों से भी बहुत दूर नहीं। जब प्रशासन पूरी तैयारियों के दावे कर रहा हो, प्रधानमंत्री इन तैयारियों का जायजा लेने के लिए दौरे कर चुके हों, विरोधी दलों के नेता इस पर बयान जारी कर रहे हों और सर्वदलीय बैठक में तमाम तरह की चर्चाएं हो रही हों, तब इसका यही अर्थ लगाया जा सकता है कि देश में कोरोना वायरस की वैक्सीन अब दस्तक देने वाली है। हालांकि, इस बीच सरकार की तरफ से कुछ विरोधाभासी बयान भी सामने आए हैं, जो बताते हैं कि वास्तविक टीकाकरण शुरू होने से पहले वैक्सीन-नीति को लेकर शायद अभी बहुत कुछ तय होना शेष है। 

वैक्सीन-नीति कैसे बनती है और कैसे वक्त-जरूरत के हिसाब से बदलती है, इसको समझने के लिए हमें उस टीकाकरण अभियान पर नजर डालनी चाहिए, जो 1802 में इस देश में चलाया गया था। यह इस देश का पहला टीकाकरण अभियान था, जिसकी बागडोर सरकार के हाथों में थी। एक हिसाब से देखें, तो यह पूरी दुनिया में पश्चिम यूरोप के बाहर कहीं भी चला पहला टीकाकरण अभियान था। चेचक का वह टीका चंद वर्षों पहले ही इंग्लैंड में विकसित हुआ था और आस-पास के कुछ देशों में पहुंचने के बाद सीधे भारत में ही आया था।

उस समय तक ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार पूरे देश पर काबिज हो चुकी थी और उसी की पहल पर यह टीका प्राथमिकता के साथ भारत लाया गया था। चूंकि यह भारत में पहला टीकाकरण अभियान था, इसलिए इसकी चुनौतियां बहुत बड़ी थीं। न तो इसके लिए कोई तैयार इन्फ्रास्ट्रक्चर था और न  ही समाज ऐसी आधुनिक या विदेशी चिकित्सा के लिए मानसिक तौर पर तैयार था। उस समय टीका लगाने का तरीका था एक आदमी से दूसरे को टीका लगाना, जिसे ‘आर्म टु आर्म’ वैक्सीनेशन कहा जाता है। आज हमें रेफ्रिजरेटेड वैक्सीन पूरे देश में पहुंचाना कठिन लग सकता है, लेकिन आर्र्म टु आर्म वैक्सीनेशन की व्यवस्था करने के मुकाबले यह कठिनाई कुछ भी नहीं है। टीकाकरण के लिए पूरे देश को तब चार हिस्सों में बांटा गया था- मद्रास, बॉम्बे, बंगाल और बर्मा। जॉन शूलब्रेड को वैक्सीन इनॉकुलेशन का सुपरिटेंडेंट जनरल बनाया गया और चारों क्षेत्रों के लिए सुपरिटेंडेंट नियुक्त किए गए। इसके बाद बड़े पैमाने पर वैक्सीनेटर्स की भर्ती हुई और उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण देने के बाद टीका लगाने का पूरा साजो-सामान दिया गया। उनका काम था, गांव-गांव, घर-घर जाकर लोगों को चेचक का टीका लगाना। 

इन वैक्सीनेटर्स को मामूली धनराशि दी जाती थी और यह माना जाता था कि जिनको टीका लगाया जाएगा, वे लोग उन्हें कुछ पैसे देंगे, यानी देश का पहला टीकाकरण अभियान शुरू में भुगतान आधारित (पेड वैक्सीनेशन)  था। लेकिन कुछ ही दिनों में पता चला कि आमतौर पर लोग या तो टीका लगवाने के लिए पैसे नहीं देते या फिर पैसे की वजह से लगवाने से ही इनकार कर देते हैं। इस वजह से सबको टीका लगाने का संकल्प खटाई में पड़ता दिख रहा था, लेकिन उस समय की सरकार अपनी नीति बदलने को तैयार नहीं थी। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इंग्लैंड मैं जब टीकाकरण का काम चल रहा था, तब वहां नॉरविच शहर के लोगों, खासकर गरीबों ने अपने किसी पूर्वाग्रह के चलते टीका लगवाने से इनकार कर दिया था। इसका एक तरीका यह निकाला गया कि जो टीका लगवाएगा, उसे इसके बदले में कुछ पैसे दिए जाएंगे। जबकि भारत में नॉरविच मॉडल के विपरीत टीका लगवाने वालों से पैसे लिए जा रहे थे।

वैक्सीनेटर्स को सरकार की तरफ से बहुत कम पैसे मिल रहे थे और टीका लगवाने वाले उन्हें पैसे दे नहीं रहे थे, जिसके कारण उनके लिए गुजारा चलाना मुश्किल हो रहा था। नाराजगी बढ़ी, तो एक दिन दार्जीलिंग के सभी वैक्सीनेटर्स हड़ताल पर चले गए। दार्जीलिंग देश की कुछ उन ठंडी जगहों में से एक है, जिसे हिल स्टेशन का दर्जा हासिल है और वहां बहुत सारे अंगे्रज छुट्टियां बिताने जाया करते थे, कुछ तो वहीं रहने भी लग गए थे। उस समय की वैक्सीन-नीति की सबसे बड़ी प्राथमिकता ये अंग्रेज ही थे, हड़ताल उनके सुरक्षा-चक्र को तोड़ सकती थी। इसके बाद ही यह नीति बनी कि वैक्सीनेटर्स को सरकार पूरी तनख्वाह पर रखेगी।

ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्यालय कोलकाता में था और मजबूत सुरक्षा-चक्र बनाने का पूरा ख्याल रखा गया। वहां इसका जिम्मा डॉक्टर टी एडमंड चाल्र्स के पास था। उन्होंने सबसे पहले तो पूरे शहर में टीकाकरण का अभियान चलाया, फिर उसके आस-पास के क्षेत्रों को सात सर्किल में बांटकर उनमें भी पूरी तरह टीकाकरण कर दिया, ताकि कंपनी का केंद्रीय कार्यक्षेत्र पूरी तरह सुरक्षित हो सके। मद्रास प्रेसीडेंसी में इसके लिए बिल्कुल अलग तरीका अपनाया गया। वहां स्कूलों में सभी छात्रों के लिए यह टीकाकरण अनिवार्य कर दिया गया। 

भारत के पहले टीकाकरण की यह कहानी काफी लंबी है। लेकिन इसके दो सबक काफी स्पष्ट हैं। एक तो यह कि वैक्सीन-नीति में लचीलापन बहुत जरूरी है। राज्यों, उसके क्षेत्रों और यहां तक कि जिलों को अपनी जरूरत के हिसाब से इसमें थोड़े-बहुत बदलाव की इजाजत दी जानी चाहिए। खुद केंद्र सरकार को भी जरूरत के मुताबिक बदलाव के लिए तैयार रहना चाहिए। दूसरा सबक यह कि शुरुआत कहीं से भी हो, लेकिन अंतिम लक्ष्य सबका टीकाकरण, यानी यूनिवर्सल वैक्सीनेशन ही होना चाहिए। अगर सब सुरक्षित नहीं होंगे, तो खतरा सभी पर बना रहेगा। यही हमने चेचक में किया है, यही हम पोलियो में कर रहे हैं, और यही हमें कोविड-19 में भी करना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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