आरबीआई के समक्ष चुनौतियां (बिजनेस स्टैंडर्ड)

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने सन 2020 की अपनी अंतिम नीतिगत समीक्षा में आशाओं के अनुरूप ही नीतिगत दरों को अपरिवर्तित छोड़ दिया। समिति ने मुद्रास्फीति और वृद्धि को लेकर भी अपने अनुमान संशोधित किए। समिति का अनुमान है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चालू तिमाही में गिरावट के दौर से बाहर निकल आएगी और वह 0.1 फीसदी की सकारात्मक वृद्धि हासिल कर सकती है। अगली तिमाही में वृद्धि दर के सुधरकर 0.7 फीसदी होने की आशा है। पिछली बैठक से तुलना की जाए तो मुद्रास्फीति को लेकर समिति का नजरिया काफी बदल गया है। अब एमपीसी का अनुमान है कि चालू तिमाही में मुद्रास्फीति की दर 6.8 फीसदी और अगली तिमाही में 5.8 फीसदी रहेगी। कम से कम अगले वित्त वर्ष की पहली छमाही तक मुद्रास्फीति तय लक्ष्य के मध्य मान यानी चार फीसदी से ऊपर ही रहेगी।

 

इसके अलावा एमपीसी ने कहा है कि उसे यह उम्मीद थी कि ठंड के महीनों में राहत के बाद मुद्रास्फीति ऊंचे स्तर पर बनी रहेगी। बहरहाल एमपीसी के बयान और बाद में आरबीआई प्रमुख के मीडिया के साथ संवाद से यही सुझाव निकलता है कि केंद्रीय बैंक वृद्धि की सहायता करने को लेकर अधिक चिंतित है। निश्चित तौर पर आरबीआई ने कोविड-19 से संबंधित बाधाओं से जूझ रही अर्थव्यवस्था को मदद पहुंचाने के लिए कई बड़े कदम उठाए हैं। केंद्रीय बैंक ने ब्याज दरों में कमी करने के अलावा वित्तीय हालात सहज बनाने के लिए व्यवस्था में बहुत बड़े पैमाने पर नकदी उपलब्ध कराई। कर्जदाताओं और कर्जदारों को राहत देने के लिए भी नियामकीय हस्तक्षेप किए गए। परंतु शायद यह काम बहुत लंबे समय तक न किया जा सके। केंद्रीय बैंक ने अब वृद्धि की सहायता करने का निर्णय लिया है। उसे जल्दी ही सन 2021 में अन्य नीतिगत पहलुओं पर भी काम करना होगा। 

 

उदाहरण के लिए व्यवस्था में अतिरिक्त नकदी के कारण अल्पावधि की दरें रिवर्स रीपो दर से नीचे आ चुकी हैं। हालांकि फिलहाल यह मददगार नजर आ सकता है लेकिन यह जोखिम भी उत्पन्न कर सकता है। नकदी के सबसे बड़े कारकों में से एक है मुद्रा बाजार में आरबीआई का हस्तक्षेप ताकि अतिरिक्त विदेशी मुद्रा का समायोजन किया जा सके। रुपये की बाहरी प्रतिस्पर्धा बनाए रखने के लिए ऐसा करना जारी रखना होगा। अगले वर्ष भी भारत के पास भुगतान संतुलन का अच्छा खासा अधिशेष रहने की संभावना है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि आरबीआई इसके कारण रुपये की बढ़ती तरलता को कैसे संभालेगा। रिवर्स रीपो इस समस्या को उचित तरीके से हल करती नहीं दिखती। उच्च नकदी, कर्जदारों के लिए मददगार है। इसमें सरकार भी शामिल है क्योंकि इस वर्ष के अलावा अगले वर्ष भी उसकी उधारी योजना काफी बड़ी हो सकती है क्योंकि घाटे में हुए इजाफे को एकबारगी कम नहीं किया जा सकता। बहरहाल लंबे समय तक अधिक नकदी का प्रबंधन करना उस समय मुद्रास्फीतिक नतीजों को प्रभावित कर सकता है जब अर्थव्यवस्था में सुधार शुरू हो। 

 

आरबीआई यदि मुद्रास्फीति की प्रकृति का अध्ययन करे तो बेहतर होगा। उसे आपूर्ति क्षेत्र की उन बाधाओं का भी अध्ययन करना चाहिए जिनके चलते उत्पादन सुधरने के बावजूद कीमतों में इजाफा हो रहा है। यह भी देखना होगा कि टीका आने के बाद आने वाले महीनों में मुद्रास्फीति किस तरह का व्यवहार करेगी। क्योंकि तब गतिशीलता आएगी और मांग में भी सुधार होगा? एमपीसी और आरबीआई को इन पर तत्काल ध्यान देना चाहिए। केंद्रीय बैंक को मुद्रास्फीति के जोखिम की अनदेखी करता नहीं नजर आना चाहिए क्योंकि इससे मौद्रिक नीति की विश्वसनीयता प्रभावित होगी। इसके दीर्घकालिक निहितार्थ हो सकते हैं। खासकर ऐसे समय में जब मध्यम अवधि की संभावित वृद्धि का काफी धीमा रहने का अनुमान है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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