किसानों के समर्थन में आयोजित कल का भारत बंद शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हुआ, तो यकीनन इसके लिए प्रशासन और आंदोलनकारी, दोनों की सराहना की जाएगी। इस बंद को देश की ज्यादातर विपक्षी पार्टियों और अनेक सामाजिक संगठनों ने अपना समर्थन दिया था और यही वजह है कि कई राज्यों में इसका असर दिखा भी है। दरअसल, किसानों और जवानों के प्रति भारत में एक विशेष अनुराग का भाव शुरू से रहा है। इसलिए उनकी मांगों से आम जनता को कभी शिकायत नहीं होती। सरकारों का रवैया भी उनके प्रति अमूमन संजीदगी और सहानुभूति भरा ही रहता है। नए कृषि कानूनों से जुड़े मौजूदा विवाद में भी सरकार और किसानों के बीच कई दौर की वार्ताओं से साफ है कि बातचीत से एक संतोषजनक रास्ता निकालने की कवायद की जा रही है।
बहरहाल, भारत बंद को जिस बडे़ पैमाने पर विपक्षी दलों ने अपना समर्थन दिया, इसका नैतिक पहलू तो खैर अपनी जगह है ही, मगर इसके अलग राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। यह एक सच्चाई है कि भाजपा विरोधी पार्टियां केंद्र सरकार की कतिपय नीतियों के विरुद्ध अपने बूते देश भर में कोई राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने में खुद को असमर्थ पा रही थीं, ऐसे में, किसानों को हासिल व्यापक जन-सहानुभूति के सहारे उन्होंने अपनी भूमिका रची है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, खासकर इसके पश्चिमी हिस्से में किसान एक बड़े वोटबैंक भी हैं और इन राज्यों में राजनीतिक रूपरेखा तय करने में उनका अहम रोल होता है। पंजाब और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2022 के शुरुआती महीनों में ही होने वाले हैं, ऐसे में राजनीतिक पार्टियों को स्वाभाविक ही उन मुद्दों और मौकों की तलाश होगी, जो उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित करे। और इसमें कोई दोराय नहीं कि किसान आंदोलन में एनडीए विरोधी पार्टियों ने वह मौका ढूंढ़ लिया है। कुछ विपक्षी पार्टियां तो पुराने रुख से कलाबाजी मारते हुए किसानों के साथ आ खड़ी हुई हैं।
किसान आंदोलन की मांगों और चिंताओं के लिहाज से भारत बंद कितना फलदायी रहा, यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा, लेकिन कृषक नेताओं ने अब तक जिस तरह से मुख्यधारा के राजनेताओं को अपने मंच से दूर रखा और परोक्षत: उनका समर्थन भी जुटाया, इससे उनकी अक्लमंदी तो झलकती ही है। भारतीय लोकतंत्र में अपनी बात को शासन तक पहुंचाने के जो रास्ते संविधान ने नागरिकों, राजनीतिक दलों को दिए हैं, उनके इस्तेमाल से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती? लेकिन कोई भी परिपक्व लोकतंत्र अपने राजनीतिक दलों से यह भी अपेक्षा करेगा कि वे समाधान का पुल बनें। किसान आंदोलन के समाधान में जिम्मेदार पार्टियों को यह भूमिका भी अपनानी चाहिए। कोराना और आर्थिक बदहाली के मद्देनजर भी इस गतिरोध को जल्द से जल्द खत्म करने की जरूरत है। इतनी सर्दी में खुले आकाश के नीचे बैठे हजारों किसानों और सरकार के बीच संवाद तो चल ही रहा है। पर उनके रुख को लचीला बनाने में देश के तमाम राजनीतिक दल अहम रोल निभा सकते हैं, और इसमें राजग के घटकों और विरोधी पार्टियों, सबको सहयोग करना चाहिए। दुर्योग से हम एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति के शिकार बनते जा रहे हैं, जिसमें राजनीतिक दलों के बीच अपसी संवाद की गुंजाइश लगातार सिकुड़ती जा रही है।
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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