किसान संगठनों के रवैये को देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि केंद्र सरकार के साथ होने वाली आज की बातचीत किसी नतीजे पर पहुंचेगी। कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग अनावश्यक जिद के अलावा और कुछ नहीं।
किसान संगठनों के रवैये को देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि केंद्र सरकार के साथ होने वाली आज की बातचीत किसी नतीजे पर पहुंचेगी और उनका धरना खत्म होगा, फिर भी इसकी उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसा ही हो। यह उम्मीद तभी पूरी हो सकती है, जब किसान नेता अपनी यह जिद छोड़ेंगे कि तीनों नए कृषि कानूनों को वापस लिया जाए। यह मांग इसलिए हर्गिज नहीं मानी जानी चाहिए, क्योंकि एक तो इससे देश-दुनिया को गलत संदेश जाएगा और दूसरे, भीड़तंत्र के जरिये लोकतंत्र को झुकाने की अराजक प्रवृत्ति को बल मिलेगा। इन कानूनों की वापसी होने पर कल को कोई अन्य समूह-संगठन लोगों को दिल्ली में जमाकर यह मांग कर सकता है कि अमुक-अमुक कानून खत्म किया जाए। कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग इसलिए अनावश्यक जिद के अलावा और कुछ नहीं, क्योंकि सरकार उनमें संशोधन के लिए तैयार है। विडंबना यह है कि इसके बावजूद किसान नेता न केवल अड़ियल रवैया अपनाए हुए हैं, बल्कि सरकार पर यह तोहमत भी मढ़ रहे हैं कि वह लचीले रुख का परिचय नहीं दे रही है। इतना ही नहीं, वे तरह-तरह की धमकियां भी दे रहें। वे कभी सड़कों को जाम करने और कभी 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालने की धमकी दे रहे हैं।
किसान नेता यह तो रेखांकित कर रहे हैं कि धरने पर बैठे किसान दिल्ली की सर्दी में ठिठुर रहे हैं, लेकिन इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि उनके कारण राजधानी और आसपास के लोगों को किस तरह परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। लोगों को तंगकर अपनी मांग मनवाने की चेष्टा जोर-जबरदस्ती के अलावा और कुछ नहीं। यह सही है कि कई विपक्षी दल और खासकर कांग्रेस एवं वामपंथी समूह किसान संगठनों को उकसाने में लगे हुए हैं, लेकिन उनका मकसद किसानों का हित साधना नहीं, बल्कि केंद्र सरकार को नीचा दिखाना है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ समय पहले कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी और यहां तक कि कई किसान संगठन वैसे ही कानूनों की वकालत कर रहे थे, जैसे मोदी सरकार ने बनाए हैं। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि नए कृषि कानून अनाज बिक्री की पुरानी व्यवस्था खत्म नहीं करते, बल्कि वे किसानों को एक नया विकल्प उपलब्ध कराते हैं। इसी तरह वे अनुबंध खेती का भी विकल्प दे रहे हैं। यदि किसी को अनाज बिक्री की नई व्यवस्था और अनुबंध खेती रास नहीं आती तो वह उसे न अपनाने के लिए स्वतंत्र है। आखिर किसी भी क्षेत्र में कुछ और विकल्पों की उपलब्धता समस्या कैसे बन सकती है और वह भी तब जब पुराने विकल्प खत्म न किए गए हों?
सौजन्य - दैनिक जागरण।
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