हरित क्रांति का हासिल, किसान आंदोलन के प्रति उदासीन रहना ठीक नहीं (अमर उजाला)

वीर सिंह 

किसान आंदोलन समकालीन भारत की एक बहुत बड़ी घटना है, और इसके प्रति उदासीन रहना ठीक नहीं होगा। इस आंदोलन के बहुत सारे विश्लेषण हो रहे हैं, सरकार की नई कृषि नीति और नए कानून पर भी एक अनंत-सा वाद-विवाद चल रहा है। लेकिन आंदोलन की जड़ों तक कोई नहीं पहुंचा। भारतीय किसानों के चरम असंतोष, आंदोलनों और आत्महत्याओं के पीछे कृषि के इतिहास का चार-पांच दशक पुराना एक काला अध्याय है, जिसकी चर्चा केवल स्थूल रूप में होती है। न तो कभी किसी केंद्र सरकार, न पंजाब सरकार और न ही पंजाब के किसानों ने इसे मुद्दा बनाया। भारतीय कृषि का यह काला अध्याय है तथाकथित हरित क्रांति, जिसका प्रादुर्भाव 1960 दशक के मध्य हो गया था, और हमारी सरकारें और किसान दो दशक तक यह भ्रांति पालते रहे कि देश ने कृषि विकास में एक क्रांति पैदा कर खाद्य सुरक्षा का अभेद्य कवच तैयार कर लिया है।



वर्तमान किसान आंदोलन का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि इसमें सर्वाधिक भागीदारी उन प्रदेशों के किसानों की है, जो हरित क्रांति का परचम लहराने में अग्रणी रहे हैं। भारत में हरित क्रांति की गौरव गाथा लिखने में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हाथ है। और आज सबसे अधिक अकुलाहट भी इन्हीं क्षेत्रों के किसानों में हैं। अगर भारत को अन्नोत्पादन में किसी ने आत्मनिर्भर बनाया, तो वह भी इन्हीं क्षेत्रों के किसान थे। लेकिन देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले किसान स्वयं परनिर्भर हो गए हैं। खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर देश को जिताने वाले स्वयं पराजित हो गए हैं। अगर इन किसानों को हरित क्रांति ने सड़कों पर ला खड़ा किया, तो हरित क्रांति ने इस देश को दिया ही क्या? पतझड़ से भी बुरी हरियाली! 



भारत में हरित क्रांति के सिरमौर पंजाब को हरित क्रांति की सबसे बड़ी देन है कैंसर की बीमारी। लॉकडाउन और कोविड-19 महामारी के कारण अबोहर-जोधपुर एक्सप्रेस, जिसे सारा देश 'कैंसर ट्रेन' के नाम से जानता है, महीनों से निलंबित पड़ी है और कैंसर मरीजों का बुरा हाल है, क्योंकि वे चिकित्सा के लिए बीकानेर नहीं जा पा रहे। इस ट्रेन में कोई 60 प्रतिशत यात्री कैंसर मरीज होते हैं, जो इलाज के लिए बीकानेर स्थित आचार्य तुलसी रीजनल कैंसर हॉस्पिटल ऐंड रिसर्च सेंटर जाते हैं। इन मरीजों में अधिकांशतः किसान, और उनमें भी सभी आयुवर्ग के होते हैं। इनमें अधिकांश किसान पंजाब के कॉटन बेल्ट (जिसमें मानसा, फरीदकोट, बठिंडा, संगरूर, मुक्तसर, फिरोजपुर, मोगा और फाजिल्का आते हैं) के छोटे किसान होते हैं।


पंजाब भारत के भूगोल का मात्र 1.5 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन इस प्रदेश में कीटनाशक और शाकनाशी रसायनों की खपत का हिस्सा 20 प्रतिशत है। लगभग चार-पांच दशकों से तरह-तरह के कीटनाशकों, फफूंदनाशकों, खरपतवारनाशकों आदि के उपयोग के चलते मिट्टी इतनी जहरीली हो गई है कि हरित क्रांति लाने वाले खेत अब जहरीले टापू बन गए हैं। मिट्टी में तो जहर है ही, उससे पैदा अनाजों, दालों, फलों, सब्जियों, तिलहनों में भी जहर के अंश हैं। हवाओं और पानियों तक में रासायनिक जहर घुला है। फिर जीव-जंतु और मनुष्य कैसे स्वस्थ और प्रसन्न रह सकते हैं!


कुछ वर्ष पूर्व राज्य सरकार द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, हरित क्रांति की इस धरती (जिसे देश की ब्रैडबास्केट भी कहते हैं) में प्रति दिन 18 लोग कैंसर के शिकार होते हैं। पंजाब देश का ऐसा राज्य है, जहां कैंसर की दर सर्वाधिक है। पंजाब में प्रति एक लाख लोगों में 90 कैंसर मरीज हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत अस्सी का है। हालांकि एक सरकारी रिपोर्ट इसका खंडन करती है। इस बीमारी की सबसे अधिक घटनाओं के कारण मालवा क्षेत्र को 'कैंसर बेल्ट' के रूप में जाना जाता है। पंजाब राज्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी की पर्यावरण रिपोर्ट से पता चलता है कि पंजाब में जितने जीवनाशी रसायन खेती के काम में लगते हैं, उनमे से 75 फीसदी केवल मालवा क्षेत्र में खपते हैं। क्या यह आंकड़ा स्वयं नहीं बताता कि मालवा को 'कैंसर बेल्ट' बनाने के लिए यही कृषि रसायन जिम्मेदार हैं? विगत मार्च में एक सुखद समाचार यह आया कि सरकार कैंसर-ग्रस्त मालवा क्षेत्र में जैविक खेती को बढ़ावा देगी। लेकिन उसमें कितनी प्रगति हुई, यह पता नहीं है। एक जुलाई, 2019 को गार्जियन  में पंजाब पर केंद्रित एक आलेख में कहा गया कि जो जीवनाशी रसायन फसलों में छिड़के जा रहे हैं, वे विश्व स्वस्थ्य संगठन द्वारा क्लास वन में वर्गीकृत किए गए हैं, जो सबसे जहरीले होते हैं और सभी देशों में प्रतिबंधित हैं।


कृषि कार्यों में प्रयुक्त होने वाले रसायन अधिकांशतः कैंसर कारक हैं। वैसे तो कृषि उत्पादों के सभी उपभोक्ता इनके शिकार हो सकते हैं, लेकिन किसानों के लिए इनके खतरे सबसे व्यापक हैं। कृषि कार्यों में जीवनाशी रसायनों के प्रयोग के समय किसान उनसे सीधे संपर्क में रहते हैं और बहुत सावधानी के साथ छिड़काव करने के बावजूद उसका कुछ अंश किसी न किसी तरह से उनके शरीर में प्रवेश कर जाता है। चिकित्सा क्षेत्र के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों में जैवनाशक रसायनों का संबंध मस्तिष्क, फेफड़े, गुर्दे, उदर, अग्नाश्य, वक्ष, रक्त, प्रोस्टेट और अंडाशय के कैंसर से स्थापित किया गया है। इन रसायनों के कारण कैंसर के अलावा अन्य कई तरह की बीमारियां होती हैं। देखा जाए तो हरित क्रांति से पैदा महामारी विश्वव्यापी कोरोना महामारी सेभी बड़ी है। कोविड-19 की तो वैक्सीन तैयार हो चुकी है, हरित क्रांति से फैले रोगों के विरुद्ध कौन वैक्सीन बनाएगा?


पंजाब की सरकारें यदा-कदा उन कंपनियों से समझौता करती रही हैं, जो कृषि को अत्यधिक बीमार बनाने वाले साधन तैयार करती हैं। लेकिन कभी वैकल्पिक कृषि पद्धतियों (जैसे पारिस्थितिक कृषि, प्राकृतिक कृषि, जैविक खेती, अक्षय खेती, कृषि-वानिकी आदि) पर विचार नहीं किया गया। किसानों ने भी कृषि की जैव विविधता को लीलने वाली, मिट्टियों को बंजर बनाने वाली, भूजल सोखकर धरती के गर्भ को खाली करने वाली, जहरों का लावा उगलने वाली, किसानों को दरिद्र, बीमार और कर्जदार बनाने वाली तथा अंततः उन्हें आत्महत्या तक ले जाने वाली हरित क्रांति के विकल्प के बारे में कभी नहीं सोचा।


(-लेखक जी बी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर हैं।)

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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