अशोक मेहता, मेजर जनरल (सेवानिवृत)
चीन ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र की महत्वपूर्ण इकाई सुरक्षा परिषद में भारत की राह में रोड़े अटकाने का प्रयास किया है. उसने भारत को आतंकवाद, आतंकी गिरोह अल कायदा और उससे जुड़े समूहों पर बनी एक सब्सिडियरी कमिटी का अध्यक्ष बनने से रोक दिया है. यदि भारत इस कमिटी का अध्यक्ष बनता, तो उसे कई तरह के लाभ होते. सबसे पहली बात तो यही है कि किसी भी तरह की कमिटी का अध्यक्ष बनने से उस देश की हैसियत बढ़ती है.
सो, भारत का असर भी बढ़ता. अल कायदा सैंक्शंस कमिटी का अध्यक्ष बनने का सबसे बड़ा लाभ भारत को यह होता कि वह उससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी के रूप में नामित कर सकता था और उस पर पाबंदी लगाने की प्रक्रिया की शुरुआत कर सकता था. एक कमिटी का अध्यक्ष बनने के बाद उस देश को किसी को भी वैश्विक आतंकवादी घोषित करने का अधिकार मिल जाता है, उसे ऐसा करने की अनुमति होती है.
ऐसा होना किसी भी देश के लिए बड़ी बात होती है. इससे पहले भी जब मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करना था, तो तीन बार चीन ने सैंक्शंस कमिटी में वीटो के अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर उस पर रोक लगा दी थी. आखिर में जब अमेरिका ने कोशिश की और दबाव डाला, तब मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित किया गया.
चीन द्वारा अल कायदा सैंक्शंस कमिटी का अध्यक्ष बनने से भारत को रोकने के पीछे पाकिस्तान का बहुत बड़ा हाथ है. यह बात एकदम स्पष्ट है कि पाकिस्तान के कहने पर ही चीन ने भारत के रास्ते में अड़ंगा डाला है और कमिटी का अध्यक्ष नहीं बनने दिया है. दूसरी बात यह है कि जब से लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन के बीच तनाव पैदा हुआ है, भारत और चीन दोनों का रवैया भी बदल गया है.
हालांकि यह कोई विशेष आश्चर्य वाली बात नहीं है. सच तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के जो पांच स्थायी सदस्य देश हैं, उनके पास किसी को भी अध्यक्ष बनने से रोकने का विशेष अधिकार है और स्थायी सदस्य होने के नाते चीन ने भारत के साथ यही किया है. इसके अतिरिक्त, एक कमिटी लीबिया के ऊपर और एक तालिबान सैंक्शंस पर भी है, लेकिन भारत को इन दोनों कमिटियों का अध्यक्ष बनने से रोकने की कोशिश चीन ने नहीं की है.
इन दोनों कमिटियों का अध्यक्ष भारत होगा. लेकिन अल कायदा सैंक्शंस कमिटी, जिसका अध्यक्ष बनना भारत चाह रहा था, उसमें चीन ने बाधा डाल दिया है. सो, भारत अब इस कमिटी का अध्यक्ष नहीं होगा. इस कमिटी की अध्यक्षता अब नाॅर्वे कर रहा है. अब जब नाॅर्वे इस कमिटी की अध्यक्षता करेगा, तो किसी को आतंकवादी घोषित करने या नहीं करने का अधिकार अब उसके पास है. लेकिन भारत नाॅर्वे पर प्रभाव डालने की कोशिश अवश्य करेगा, यह कहा जा सकता है. चूंकि भारत के पास अधिकार नहीं है, ऐसे में उसके लिए मौका भी कम ही होगा.
मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने को लेकर चीन पर जब अमेरिका ने दबाव बनाया और दबाव के कारण उसे मसूद अजहर को बेमन से आतंकवादी घोषित करना पड़ा, उसे चीन आज तक भूल नहीं पाया है. अपने अहं को पहुंची चोट का बदला एक तरीके से चीन ने भारत को अल कायदा कमिटी का अध्यक्ष बनने से रोक कर लिया है. चीन को लगता है कि भारत के कहने पर ही अमेरिका ने उस पर दबाव बनाया था.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत-चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव, चीन-पाकिस्तान का मिलाप और मसूद अजहर को दबाव में आतंकवादी घोषित करना ही भारत को अध्यक्ष बनने से रोकने के प्रमुख कारण हैं. चीन के इस कदम का एक और कारण तालिबान को खुश करना भी हो सकता है क्योंकि तालिबान के साथ उसके अच्छे संबंध हैं. जहां तक अल कायदा के साथ चीन के ताल्लुक की बात है, तो उसके साथ उसका कोई ताल्लुक नजर नहीं आता है.
चीन के इस कदम से स्पष्ट है कि भारत को उसके साथ केवल सीमा विवाद को लेकर ही नहीं, बल्कि व्यापक अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और रणनीति के स्तर पर भी लड़ना होगा. इसके लिए भारतीय नेतृत्व को सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के साथ व्यापक साझेदारी बनानी पड़ेगी. हालांकि इस समय चीन और रूस दोनों ही एक तरफ हैं. ऐसी स्थिति में हर हाल में रूस चीन का ही समर्थन करेगा और उसका साथ देगा. लेकिन परिषद के अन्य तीन स्थायी सदस्यों- फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका- के साथ भारत को अपना सहकार बढ़ाना पड़ेगा और उसमें मजबूती लानी पड़ेगी.
पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की समस्या यह है कि यदि कोई भी स्थायी सदस्य देश किसी मुद्दे पर ना कर दे, तो उस पर आगे बढ़ना बहुत मुश्किल हो जाता है. इन तकनीकी दिक्कतों के बावजूद भारत को उपरोक्त तीनों देशों के साथ परस्पर कूटनीतिक समझ को मजबूती देनी होगी. एक जरूरी बात और है कि न सिर्फ सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के साथ, बल्कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के सदस्य देशों के साथ भी भारत को अपने संबंधों को ठोस बनाना होगा. हालांकि यह सच है कि इस विश्व संस्था में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य ही निभाते हैं और उनका प्रभाव ही सबसे ज्यादा कारगर होता है.
लेकिन अन्य देशों के साथ ठोस आपसी समझ के आधार पर भारत दबाव बनाने की स्थिति में आ सकता है. जहां तक यह प्रश्न है कि आखिर चीन कब तक भारत की राह में रोड़े अटकाता रहेगा और भारत से उलझता रहेगा, तो इसका सीध उत्तर है कि चीन के साथ भारत का यह तनाव अब स्थायी हो गया है. जब भी जलवायु परिवर्तन, वैश्विक गवर्नेंस या कोविड जैसे मामलों को छोड़कर कूटनीति, राजनीति, सुरक्षा आदि की बात होगी, तो उसमें चीन भारत के लिए समस्याएं खड़ी करेगा.
इसे हमें स्थायी चुनौती मानकर चलना होगा. चीन के ऐसा करने के पीछे की मंशा भारत को आगे बढ़ने और एक शक्तिशाली देश बनने से रोकना है. उनका पहले से ही यह मुद्दा रहा है कि भारत विकास की दौड़ में उससे आगे न निकलने पाये. उसकी प्रतिस्पर्धा केवल अमेरिका के साथ नहीं है, एशिया में उसकी प्रतिस्पर्धा भारत के साथ है. वह किसी भी कीमत पर भारत को एशिया का सबसे शक्तिशाली देश नहीं बनने देना चाहता है. इसीलिए जब भी मौका मिलता है, वह भारत की राह बाधित करने का प्रयास करता है.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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