देश के अंतर्मन को झिंझोड़ती उत्तर प्रदेश के बदायूं की घटना ने एक बार फिर निर्भया कांड की याद दिला दी। मंदिर गई पचास वर्षीय महिला की पोस्टमार्टम रिपोर्ट रोंगटे खड़ी करने वाली है। रिपोर्ट हैवानियत की गवाही देती है। इससे पहले पुजारी महिला के कुएं में गिरकर घायल होने की बात करके पुलिस-प्रशासन को गुमराह करता रहा लेकिन पुलिस ने जिस तरह प्राथमिक स्तर पर कोताही बरती और परिजनों के कहने के बाद दूसरे दिन घटनास्थल पर पहुंची और घटना को गैंगरेप व हत्या मानने से इनकार करती रही, वह शर्मनाक है। यद्यपि योगी सरकार अपराधियों के प्रति शून्य सहिष्णुता का दावा करती रहती है लेकिन निचले स्तर के पुलिस वाले उसके दावों को पलीता लगाते रहते हैं। देर से ही सही, बदायूं के उघैती थाना के प्रभारी को निलंबित करके पुलिस की छवि को हुई क्षति को कम करने का प्रयास हुआ। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में क्रूरता की पुष्टि होने के बाद गैंगरेप और हत्या का मामला दर्ज किया गया है। मामले के दो अभियुक्त गिरफ्तार हुए हैं मगर मुख्य अभियुक्त अब तक फरार है। एक बार फिर इनसानियत शर्मसार हुई। यह घटना हमारी आस्था को भी खंडित करने वाली है कि मंदिर में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। इससे समाज का यह विश्वास खंडित होता है कि धार्मिक स्थल शुचिता और सुरक्षा के पर्याय हैं। समाज को अब यह तय करना होगा कि ऐसी आपराधिक सोच के लोग धर्म का चोगा पहनाकर अपनी आपराधिक प्रवृत्तियों को अंजाम न दे सकें। यह भी तथ्य सामने आता है कि कामांध लोगों की शिकार किसी भी उम्र की महिलाएं हो सकती हैं। निस्संदेह जहां यह कानून व्यवस्था की विफलता का मामला है, वहीं आस्था और विश्वास को खंडित करने का भी वाकया है। कानून का भय अपराधी मनोवृत्ति के लोगों में न होना कानून-व्यवस्था के औचित्य पर सवालिया निशान लगाता है, जिसके बाबत सत्ताधीशों को गंभीरता से सोचना होगा।
निस्संदेह बदायूं की हैवानियत हर संवेदनशील व्यक्ति के मन को लंबे समय तक उद्वेलित करती रहेगी क्योंकि इसमें आस्था स्थल की शुचिता को तार-तार किया गया है। यह भी कि इस अपराध को अंजाम देने वालों में ईश्वरीय और कानूनी मर्यादाओं का कोई भय नहीं रहा। जो इनसानियत से भी भरोसा उठाने वाली घटना है। घटनाक्रम सरकार व स्थानीय प्रशासन को सचेत करता है कि धर्मस्थलों में सदाचार व नैतिक व्यवहार सुनिश्चित किया जाये। सवाल पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी उठता है कि निचले स्तर के पुलिसकर्मियों को पीड़ितों के प्रति संवेदनशील व्यवहार के लिये प्रशिक्षित किया जाये। जहां यौन हिंसा रोकने के लिये बने सख्त कानूनों के सही ढंग से क्रियान्वयन का प्रश्न है वहीं निचले दर्जे के अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने का भी प्रश्न है। पुलिस की ऐसी ही संवेदनहीनता हाथरस कांड में भी नजर आई थी। सवाल यह भी है कि ऐसे मुद्दे जघन्य अपराधों के वक्त ही क्यों उठते हैं। बहरहाल, महिलाओं को सशक्त करने की भी जरूरत है ताकि वे ऐसी साजिशों के खिलाफ प्रतिरोध कर सकें। शहरों ही नहीं, गांव-देहात में भी ऐसी पहल हो और ऐसी योजनाएं सिर्फ कागजों में ही नहीं, धरातल पर आकार लेती नजर आयें। अधिकारियों को ऐसे मामलों को समझने और पीड़ितों के प्रति संवेदनशील व्यवहार के लिये प्रशिक्षित करने की सख्त जरूरत है। साथ ही शासन-प्रशासन की तरफ से अपराधियों को सख्त संदेश जाना चाहिए कि हैवानियत को अंजाम देने वाले लोगों को सख्त सजा समय से पहले दी जायेगी, जिससे अपराधियों में कानून तोड़ने के प्रति भय पैदा हो सकेगा। तभी हम आदर्श सामाजिक व्यवस्था की ओर उन्मुख हो सकते हैं। सवाल योगी सरकार पर भी है कि बड़े अपराधियों के खिलाफ जीरो टॉलरेंस का दावा करने के बावजूद अखबारों के पन्ने जघन्य अपराधों की खबरों से क्यों पटे हुए हैं। लखीमपुर खीरी, बुलंदशहर, हाथरस, बदायूं की घटनाओं के अलावा कानपुर के बहुचर्चित संजीत यादव अपहरण व हत्या कांड में पुलिस की नाकामी क्यों सामने आई है। संगठित अपराधों पर नियंत्रण के दावों के बीच जघन्य अपराध थम क्यों नहीं रहे हैं।
सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।
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