- गुलाब कोठारी
हमारे अध्यात्म में स्थूल, सूक्ष्म और कारण—ये तीन प्रकार के शरीर कहे गए हैं। इनमें कारण शरीर आयुमय, सूक्ष्मशरीर इन्द्रियरूप तथा स्थूल शरीर रस-रक्त-मांसादि धातुरूप है। इन तीनों शरीरों का निर्माण क्रमश: आदित्यमय द्युलोक, वायुमय अन्तरिक्ष तथा अग्निमय पृथ्वी से होता है। मनुष्य शरीर के पंचकोशों में से स्थूल शरीर में अन्नमय कोश, सूक्ष्म शरीर में प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय कोश और कारण शरीर में आनन्दमय कोश स्थित है।
अन्न से बनने वाला शरीर अन्नमय कोश है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश—इन पंचभूतों की समष्टि ही यह शरीर है। इसमें कठिन अर्थात् हड्डियों सहित कठोर भाग पृथ्वी से बनता है। रक्त अर्थात् बहने वाला भाग जल से, उष्ण भाग तेज से, गति वाला भाग वायु से तथा खाली भाग आकाश से निर्मित होता है। पृथ्वी धारण करने वाली है। जल से स्नेहन होता है। पिण्ड निर्माण के लिए जल आवश्यक है। सूखी मिट्टी से लोष्ठ निर्माण (लोन्धा/लोया बनाने) के लिए जल का प्रयोग किया जाता है। प्रकाश करने के लिए तेज आवश्यक है। अंधकार को दूर करने का साधन प्रकाश है। प्रकटीकरण के साधन को प्रकाश कहते हैं। हमारी चक्षु इन्द्रियां ही तेज हैं। इसी को चाक्षुष कृष्ण कहा गया है। संचरणशीलता के लिए वायु आवश्यक है क्योंकि गति ही जीवन है। गति का रुकना ही मृत्यु है। अत: हमारे प्राण वायु तत्त्व हैं, जो शरीर में हर समय संचार करते रहते हैं। आकाश, अवकाश को कहते हैं। किसी भी वस्तु की उत्पत्ति के लिए खाली स्थान का होना आवश्यक है। हमारा यह स्थूल अन्नमय शरीर अन्न के रस से निर्मित होता है। अत: इसको आहार शरीर भी कहते हैं। इसमें अन्न शुद्धि प्रधान मानी गई है। आहार-विहार के संयम और पवित्रता, आसन सिद्धि और प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से अन्नमय कोश की शुद्धि होती है। इससे निरोगी, चिरयौवन तथा दीर्घ जीवन की प्राप्ति होती है।
अन्नमय तथा आनन्दमयकोश की सत्ता का मूलाधार प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय कोश यानी सूक्ष्म शरीर ही है। स्थूल शरीर और कारण शरीर का वास्तविक संचालक सूक्ष्म शरीर ही है।
मन के साथ पांच ज्ञानेन्द्रियों के संयोग से बनने वाला मनोमय कोश कहा जाता है। जब ज्ञानेन्द्रियों के साथ बुद्धि का योग होता है तो वह विज्ञानमय कोश कहलाता है। पांच प्राणों तथा कर्मेन्द्रियों के मेल से बनने वाला कोश प्राणमय कोश कहलाता है। प्राणमय कोश क्रिया शक्ति से सम्पन्न तथा कर्मरूप है। मनोमय कोश इच्छा शक्ति से सम्पन्न और कारण रूप है। विज्ञानमय कोश ज्ञानशक्ति से सम्पन्न कर्तारूप है। ये तीनों कोश सूक्ष्म शरीर से सम्बद्ध हैं।
अन्नमय कोश के कण-कण में प्राण रहते हैं। प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान इन पांच प्राणों (वायु) से ही अन्नमय कोश की समस्त क्रियाएं संचालित होती हैं। यह क्रिया प्रधान कोश है। श्वसन क्रिया में भीतर-बाहर आने-जाने वाला प्राण, शरीर की क्रियाशीलता को बनाये रखने तथा आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने का कार्य करता है। भोजन को पचाना, शरीर में रसों को समान भाव से वितरित करके उस रस से शरीर को पुष्ट करना तथा रक्त के साथ मिलकर मलों को बाहर निकालने का कार्य प्राणमय कोश करता है। अत: प्राणतत्त्व को ऊर्जा या लाइफ एनर्जी भी कहते हैं। साधारण भाषा में शरीर 'ठंडा होना' का अर्थ है—मृत्यु होना। गर्मी जीवन को सूचित करती है। अन्नमय कोश या स्थूल शरीर की यह गर्मी प्राण के द्वारा ही होती है।
मृत्यु होने पर अथवा चिर समाधि में, जब प्राणों को नियंत्रित कर लिया जाता है, तब अन्नमय कोश की समस्त क्रियाएं बंद हो जाती हैं। यहां तक कि मल-मूल त्याग तथा नाखून व बालों का बढऩा भी रुक जाता है। अत: अन्नमय कोश में होने वाली समस्त क्रियाएं प्राणमय कोश के बल पर ही चलती हैं। शरीर स्वयं जड़ है।
मूर्धातत्त्व (ज्ञान) और हृदय तत्त्व (संवदेन शक्ति) वाले मनोमय कोश की शक्ति से ही प्राणमय कोश कार्य करता है। अन्नमयकोश की संवेदन-ज्ञान-क्रियाओं को पूर्ण करने के लिए प्राणमय कोश को आदेश देना मनोमय कोश का कार्य है। स्थूल शरीर की सूक्ष्म चेतना ही मन है। यह मन समस्त शरीर का संचालक है। अत: मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है। आचार-विचार, विश्वास-अभिरुचि-आकांक्षा- दृष्टिकोण इत्यादि का निर्धारण मनोमय कोश पर निर्भर करता है। हर व्यक्ति के मन की ये विशेषताएं अलग होती हैं इसलिए मन के कारण ही हर व्यक्ति दूसरे से अलग होता है। मन ही इच्छाओं के उत्पन्न होने का केन्द्र है।
मन को आत्मकल्याण की ओर बढ़ाने के लिए प्राणों की साधना करनी आवश्यक है, क्योंकि मन ही मनुष्यों के बंधन व मोक्ष का कारण कहा गया है। 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो:'। (मैत्रायणी उपनिषद् ४/ट)।
मनोमय कोश को प्रेरणा देने वाला विज्ञानमय कोश स्थूल से सूक्ष्म की ओर विचरण करता है। यह मन, प्राण तथा अन्नमय कोश का मूल कोश है क्योंकि यहां मन और ज्ञान, संवेदन तथा क्रियातत्त्व एक साथ कार्य करते हैं। इसी को प्रज्ञा भी कहते हैं। हमारे मनोमय कोश के कार्य वर्तमान से सम्बद्ध रहते हैं। उस कार्य-व्यापार के लिए जब भूतकाल के ज्ञान को जोडऩे की आवश्यकता होती है, तब विज्ञानमय कोश का सहारा लेना पड़ता है। विज्ञानमयकोश हमारे पूर्व संचित ज्ञान का संग्रहागार ही कहा जा सकता है। इस कोश की साधना करने वाला असत्य, भ्रम, मोह, आसक्ति से विरत होता हुआ योगक्रियाओं के अभ्यास से संसार से मुक्त हो जाता है।
अन्न, मन व प्राण को संचालित करने वाले विज्ञानमय कोश की शक्ति का स्रोत आनन्दमयकोश है। 'आनन्दो वै ब्रह्मÓ—इस श्रुति वचन में आनन्द को ब्रह्म कहा गया है। मन-वचन और कर्म की शुद्धता से इस कोश की सिद्धि मिलती है। गीता में स्थितप्रज्ञ की जो स्थिति कही गई है वही आनन्द की स्थिति है। इस कोश में पहुंचा हुआ जीव अन्य चार कोशों को भली प्रकार समझ जाता है।
आनन्दमय कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी, ईश्वर अंश, सत्य, शिव, सुन्दर मानता है। शरीर, मन और साधन आदि को मात्र जीवनोद्देश्य के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है। यह उपलब्ध होने पर मनुष्य हर घडी़ सन्तुष्ट एवं उल्लसित हो जाता है। ये पांचों कोश पंचभूतों की दिव्य शक्तियों के भण्डार हैं।
सामान्य अर्थों में कह सकते हैं कि सीमित, सन्तुलित और सात्विक भोजन करना, अन्नमय कोश की साधना है। साहस, संकल्प, पराक्रम, अनुसन्धान को कठोरता से अपनाने पर प्राणमय कोश सधता है। श्रेष्ठ ही देखने-खोजने और सोचने-विचारने से मनोमय कोश सध जाता है। इसी तरह संकीर्णता छोड़कर विशालता के साथ जुड़ जाने पर विज्ञानमय कोश सधता है। सादा जीवन की, बालकों जैसी निश्छलता की आदत डालने पर, हार-जीत में हंसते रहने वाले प्रज्ञावानों की तरह हर किसी अवसर में आनन्दित रहने पर आनन्दमय कोश सध जाता है।
पंचकोशों का जागरण जीवन चेतना के क्रमिक विकास की प्रक्रिया है। इन सभी कोषों का तटस्थ होना ही आध्यात्मिक अर्थों में उनका शुद्ध होना है क्योंकि इससे ही जीवात्मा अपने स्वरूप में सहजता से व्याप्त होकर मोक्षमार्ग (पुरुषार्थ) पर अग्रसर रहता है।
ये पांचों कोश एक-दूसरे से उसी प्रकार घनिष्ठता से जुड़े रहते हैं जैसे कि विश्व ब्रह्माण्ड के पांच पर्व। मानव शरीर के ये पांच कोश इन पांचों पर्वों के मूल तत्त्वों से बने हैं। वस्तुत: इन पांचों कोशों को साधने से उन सब तत्त्वों का व्यक्ति जानकार हो जाता है, जो ब्रह्माण्ड के भी मूल तत्त्व हैं।
क्रमश:
सौजन्य - पत्रिका।
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