'गृहिणियों के श्रम का महत्त्व भी समझें' (पत्रिका)

यह धारणा कि गृहिणियां खास काम नहीं करती हैं या वे घर में आर्थिक मूल्य नहीं जोड़ती हैं, एक समस्यापूर्ण विचार है, जिस पर कई वर्षों से तर्क-वितर्क किया जा रहा है। न्यायाधीश एन वी रमना ने मोटर दुर्घटना क्षतिपूर्ति से संबंधित एक अपील में 5 जनवरी 2021 को दिए गए एक फैसले में भी इस मुद्दे को उठाया। निश्चित रूप से घरेलू महिलाओं के काम को निर्धारित करने के लिए भी मौद्रिक परिमाणीकरण की आवश्यकता है, लेकिन उन्हें पैसे दिए जाएं, इस विचार से गृह लक्ष्मी अपमानित भी महसूस कर सकती है। इसके बावजूद यह तथ्य चौंकाने वाला है कि भारत के उच्चतम न्यायालय ने एक गृहिणी की मासिक आय 6,000 रुपए (नोशनल) निर्धारित की है। पहले यह राशि 3000 रुपए प्रति माह थी।

गौरतलब है कि एक मोटर व्हीकल ट्रिब्यूनल ने मुआवजा तय करते वक्त अपने फैसले में यह राशि तय की थी। अदालत ने इसे दोगुना कर दिया, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि नई राशि गृहिणियों के श्रम का सही मूल्यकांन ही है। अपने बच्चों को स्वयं पालने के लिए कितनी ही उच्च शिक्षित महिलाएं घर को ही प्राथमिकता देती हैं। एमबीए, इंजीनियर, बैंकर्स महिलाएं भी अपनी लाखों की नौकरी छोड़कर बच्चों को संभालती हैं, क्योंकि प्यार और मातृत्व का कोई मोल नहीं हो सकता।

भारत जैसे देश में केवल 22 प्रतिशत महिलाएं कार्यबल का हिस्सा हैं और उनमें से 70 प्रतिशत उन कृषि गतिविधियों से जुड़ी हैं, जो प्रकृति में अनौपचारिक रूप से कम या बिना किसी पारिश्रमिक या सामाजिक मान्यता और सामाजिक सुरक्षा के लगभग शून्य पहुंच के साथ जुड़ी हैं। इसके अलावा खाना पकाने, सफाई, पानी और जलाऊ लकड़ी जुृटाने जैसी अवैतनिक घरेलू गतिविधियों को पूरा करने में भी वे लगी रहती हैं।

अब समय आ गया है कि हम गृहिणियों के श्रम को महत्त्व दें और कानूनों और नीतियों के माध्यम से इसे पहचानें। जैसे प्रधानमंत्री किसान निधि के तहत प्रति वर्ष 6,000 रुपए की सहायता देश भर के सभी किसान परिवारों को दी जा रही है। यह राशि हर चार महीने में 2,000 रुपए की तीन बराबर किस्तों में प्रदान की जा रही है। क्या इसी तर्ज पर सरकार गृहिणियों के लिए कोई नीति नहीं बना सकती? क्या उनका हक नहीं बनता कि वे भी अपने पैरों पर खड़ी हों और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों? सरकार को एक ऐसी योजना लानी चाहिए, जिसमें गृहिणी की शिक्षा राज्य प्रायोजित हो और बाद में नौकरी प्रदान की जाए। उन्हें इस तरीके से भी प्रशिक्षित किया जा सकता है कि वे अपना ऑनलाइन व्यवसाय शुरू करने में सक्षम हो जाएं। ऐसी गृहिणियों को कुछ छूट दी जानी चाहिए और उन्हें अपने व्यवसाय को शुरू करने के लिए सरकार द्वारा मौद्रिक मदद दी जानी चाहिए। यह कदम न केवल अवैतनिक श्रम के मुद्दे को हल करेगा, बल्कि भारत को आर्थिक स्वतंत्रता के मामले में लैंगिक समानता हासिल करने में भी मदद करेगा।
लेखिका - आभा सिंह
(सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता)

सौजन्य - पत्रिका।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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