सुनीता नारायण
शहद क्यों? मधुमक्खी क्यों? क्योंकि प्रकृति की यह सेना हमारी खाद्य प्रणाली की उत्पादकता के लिए अहम है। इनके द्वारा बनाया जाने वाला शहद हमारी बेहतरी और सेहत के काम आता है। इतना तो हम जानते हैं। लेकिन हम इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि हम प्रकृति का यह उपहार बहुत जल्दी गंवा सकते हैं।
जब से हमने शहद में मिलावट का खुलासा किया है, हमेंं एकदम किताबी किस्म की प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। ये वही प्रतिक्रियाएं हैं जो दुनिया भर के बिजनेस स्कूल में सिखाई और पढ़ाई जाती हैं। सबसे पहला कदम आरोपों को नकारने का होता है। इस मामले में शहद बेचने वाली कंपनियां यह रोना रो रही हैं कि हमने चीजों को गलत समझा है। दूसरा कदम है हम पर इल्जाम लगाना और यह आशा करना कि कोई इल्जाम टिक जाएगा। इसके बाद वे वैज्ञानिक शब्दों की जुगाली कर उपभोक्ताओं को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। इस मामले में कंपनियां तमाम जांच रिपोर्ट पेश कर रही हैं और कह रही हैं कि हमारी जांच गलत थी। तीसरा कदम है एक वैकल्पिक विचार तैयार करना जिसमें कहा जाता है कि उनका उत्पाद सही और सुरक्षित है। इस प्रक्रिया में भी वे विज्ञान का सहारा लेकर शाब्दिक हेरफेर करते हैं।
याद रहे कि जब सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट (सीएसई) ने कोला (शीतल पेयों) में कीटनाशक होने की जांच की थी तब दो बड़ी कंपनियों ने बॉलीवुड के शीर्ष अभिनेताओं को प्रयोगशाला में पहने जाने वाले कोट पहनाकर प्रचार में उतारा और जनता को यह यकीन दिलाया कि सब ठीक है। इस बार भी सफेद कोट वाले लोग उपभोक्ताओं को बता रहे हैं कि इन कंपनियों के उत्पाद सुरक्षित हैं क्योंकि उनकी शुद्धता की जांच की गई है। वे यह नहीं बताते कि जांच में समस्या है। हमारा अध्ययन बताता है कि चीनी कंपनियों और अब भारतीय कंपनियों ने भी ऐसे सिरप तैयार कर लिए हैं जो शहद की शुद्धता की जांच में खरे उतरते हैं। उन्हें लगता है कि इतना पैसा खर्च करके वे हमारी आवाज को दबा देंगे।
उनके आक्रमण की चौथी कतार अधिक सूक्ष्म है और इसकी शुरुआत कोला के खिलाफ जंग के समय हुई थी। अब कंपनियां सीधे हमारे खिलाफ मुकदमे दर्ज नहीं करातीं। वे हमें भयभीत करती हैं लेकिन अदालत में नहीं जातीं। इसके बजाय वे ताकत का इस्तेमाल करके हम पर हमले की तैयारी करती हैं।
अतीत में यह काम नहीं आया और हमारा मानना है कि इस बार भी यह काम नहीं आएगा। कोला के मामले में हमारी जांच के लिए नियुक्त संयुक्त संसदीय समिति ने हमारे पक्ष में निर्णय दिया। हम मानते हैं कि इस बार भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण समेत सरकार को हमारी रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए स्वस्थ भोजन की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए। उसे मिलावट रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए। हम सभी जानते हैं कि फिलहाल काफी कुछ दांव पर लगा है।
परंतु इसकी एक और वजह हैं मधुमक्खियां। वे हमारी खाद्य प्रणाली की बेहतरी के बारे में इंगित करती हैं। बिना उनके कोई खाद्य पदार्थ नहीं होगा। मधुमक्खियां उत्पादकता के लिए बहुत अहम हैं क्योंकि वे पौधों से परागण करती हैं। व्यापक तौर पर देखें तो फूलों वाले पौधों में से 90 प्रतिशत को परागण के प्रसार के लिए उनकी आवश्यकता होती है। हम जिन फसलों का सेवन करते हैं, उन्हें भी मधुमक्खियों की आवश्यकता होती है। सरसों जैसी तिलहन फसलों से लेकर सेब, खट्टे फलों और फलियों तक मधुमक्खियां काम आती हैं। वे हमेशा से हमें कीटनाशकों की विषाक्तता और उनके अत्यधिक उपयोग को लेकर चेताती रही हैं। मधुमक्खियों को सबसे अधिक नुकसान नियोनिकोटिनॉइड कीटनाशकों ने पहुंचाया। इस श्रेणी के कीटनाशक कीटों की तंत्रिका कोशिकाओं पर हमला करते हैं। इस वर्ष मई में अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने 12 ऐसे कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा दिया ताकि परागण हो सके। परंतु अन्य तरह के कीटनाशकों का प्रयोग जारी है और मधुमक्खियां हमें बताती हैं कि कैसे हम अपने भोजन और पर्यावरण को विषाक्त बना रहे हैं।
खाद्य उत्पादन तंत्र का सवाल भी है। हमारी जांच इसलिए शुरू हुई कि कच्चे शहद की कीमतों में गिरावट आई और यह तब हुआ जब कि शहद की खपत में कई गुना इजाफा हो चुका था। मधुमक्खीपालन करने वालों का कारोबार ठप हो रहा है। हमें इससे चिंतित होना चाहिए क्योंकि उनकी आजीविका हमारे भोजन से जुड़ी है। बात केवल इतनी ही नहीं है। सच यह है कि औद्योगिक स्तर पर किए जाने वाले आधुनिक मधुमक्खीपालन की भी चर्चा की जानी चाहिए। मधुमक्खियों की जैव विविधता का भी मसला है। यूरोपीय संघ को दुनिया भर में जैवविविधता संरक्षण का अगुआ माना जाता है। वह अपने शहद के बारे में कहता है कि दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र की मधुमक्खी उसके जैसा शहद नहीं बनाती। प्रश्न यह है कि इसका मधुमक्खियों की जैव विविधता पर क्या प्रभाव होता है? भारत में भारतीय मधुमक्खी या पहाड़ी मधुमक्खियां होती हैं। यदि इनसे शहद नहीं मिलेगा, यदि इन प्रजातियों को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा तो क्या होगा?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि खेती और प्रसंस्करण से हमारा क्या तात्पर्य है। अधिकांश मामलों में शहद का प्रसंस्करण किया जाता है। इसे गर्म किया जाता है और निर्वात में सुखाया जाता है ताकि इसमें से रोगाणु समाप्त किए जाएं और इसे लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके। सुरक्षा और शुद्धता के ये मानक इसी प्रकार के प्रसंस्कृत शहद के लिए बनाए जाते हैं। परंतु क्या ये मानक उस शहद पर कारगर हैं जिसे शुद्ध शहद कहा जाता है। यानी जिसे मधुमक्खियां तैयार करती हैं और हम जिसे शुद्धतम रूप में ग्रहण करते हैं। तब यह बड़ा उद्योग कैसे बचेगा? क्या यह उत्पादन बढ़ाकर दुनिया भर के लाखों लोगों की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है? जाहिर है बुनियादी सवाल केवल शहद में मिलावट का नहीं बल्कि उससे कहीं बढ़कर है। यह सवाल भविष्य के भोजन की प्रकृति से भी जुड़ा है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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