क्या अमेरिकी प्रशासन ने ट्रंप की विनाशकारी लहर को कमतर करके नहीं आंका था? (अमर उजाला)

सुरेंद्र कुमार 

अमेरिकी सीनेट में बहुमत के नेता चक शूमर के शब्दों में, 'लोकतंत्र के मंदिर को अपवित्र कर दिया गया...छह जनवरी हाल के अमेरिकी इतिहास में एक काले दिन के रूप में जाना जाएगा।' उनकी भावनाएं लाखों अमेरिकी नागरिकों और दुनिया भर के अमेरिकी लोकतंत्र के प्रशंसकों की भावनाओं से मेल खाती हैं। कैपिटल भवन में चल रहे अमेरिकी संसद के संयुक्त सत्र में जिस तरह से ट्रंप के समर्थकों ने उत्पात मचाया, स्पीकर नैंसी पेलोसी के दफ्तर में तोड़फोड़ की, खिड़कियों को तोड़ा, अभूतपूर्व हिंसा की, जिसके कारण सांसदों एवं सीनेटरों को बाहर निकालना पड़ा, उसने लोकतांत्रिक दुनिया को भारी झटका दिया है। यह इतना विचित्र था कि कुछ देर के लिए लोकतंत्र और तानाशाही के बीच की पतली रेखा गायब हो गई। इस तरह की बर्बरता, हिंसा और अराजकता के दृश्य अक्सर अधिनायकवादी शासन में देखे जाते हैं, जहां हारने वाले नेता सत्ता में बने रहने के लिए सेना और टैंकों को बुलाते हैं। 1812 में युद्ध के दौरान ब्रिटिश द्वारा अमेरिकी कैपिटल को आखिरी बार नुकसान पहुंचाया गया था! पूर्व रिपब्लिकन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे 'काफी घिनौना' बताया। अन्य तीन जीवित पूर्व राष्ट्रपतियों-कार्टर, क्लिंटन और ओबामा ने भी कैपिटल पर हमले की कड़े शब्दों में निंदा की। निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि यह कोई 'विरोध' नहीं था, बल्कि 'विप्लव' था, जो 'देशद्रोह' पर आधारित था। 


लेकिन क्या यह वाकई अप्रत्याशित था? क्या अमेरिकी प्रशासन ने ट्रंप की विनाशकारी लहर को कमतर करके नहीं आंका था? क्या ट्रंप ने अपने इरादे को छिपाया था? नहीं। यहां तक कि प्रेसिडेंट डिबेट से पहले ही उन्होंने मीडिया से कहा था कि चुनाव में हार उन्हें स्वीकार्य नहीं होगी, क्योंकि वह मानते हैं कि जब तक चुनाव में धांधली नहीं होगी, वह हार नहीं सकते हैं। यह अटल आत्मविश्वास लोकतांत्रिक मूल्यों और लोकतांत्रिक संस्थानों में उनकी गहरी आस्था को प्रतिबिंबित नहीं करता है। वास्तव में यह एक संकीर्णतावादी राष्ट्रपति की जुनूनी आत्म-सच्चाई थी। 


इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि राष्ट्रपति ट्रंप ने एक हफ्ते से अपने समर्थकों को उकसाया- 'हम लड़ने जा रहे हैं, हम कभी हार नहीं मानेंगे', इसलिए जो भी हुआ, उन्हें हर चीज के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। यहां तक कि जब निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन द्वारा 'घेराबंदी' खत्म करने की अपील के बाद उन्होंने अपने समर्थकों को 'घर जाने' के लिए कहा था, तब भी उनके बयान में हमलावरों की निंदा या चार लोगों की जान जाने को लेकर पश्चाताप का भाव नहीं था। 


ट्रंप ने अपने जुड़वां लोकलुभावन नारों : 'अमेरिका पहले' और 'अमेरिका को फिर से महान बनाएं' के साथ अपने राष्ट्रपति कार्यकाल की शुरुआत की थी, जिस पर किसी को आपत्ति नहीं है। लेकिन उनके इस दावे कि उनके पूर्ववर्तियों ने देश के लिए कुछ नहीं किया, उन्होंने इसे बर्बाद कर दिया, को बहुत कम लोगों ने माना। उन्होंने अहंकार, आत्म-सच्चाई और विरोधाभासी विचारों के प्रति असहिष्णुता दिखाई और हमेशा खुद के सही होने का दावा किया। मीडिया की किसी भी आलोचना को वह फेक न्यूज कहकर खारिज कर देते थे। 


जिन लोगों ने ह्वाइट हाउस या मंत्रिमंडल में उनके साथ असंतोष जताने का साहस किया, उन्हें या तो निकाल दिया गया या इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया। ऐसे 45 से ज्यादा लोगों की लंबी सूची है, जिसमें विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अटार्नी जनरल, चीफ ऑफ स्टाफ एवं अन्य लोग शामिल हैं। उन्होंने बिना कोई बेहतर विकल्प पेश किए अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा के घरेलू एवं विदेशी मामलों से संबंधित फैसले को पलट दिया, जिनमें स्वास्थ्य देखभाल, आव्रजन, नस्लीय न्याय, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप, ईरान के साथ परमाणु समझौता, क्यूबा के साथ संबंधों का सामान्यीकरण, पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता शामिल हैं।


उन्होंने अपने लोकलुभावन दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया कि पूरी दुनिया अमेरिका का लाभ उठा रही है और पिछले राष्ट्रपतियों ने इसके बारे में कुछ नहीं किया, इसलिए वह इसे सही कर रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि अपने टैरिफ युद्ध के साथ चीन की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाना थी। लेकिन इसने अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए मंदी से उबरने में बाधा खड़ी की। हिंद-प्रशांत क्षेत्र को प्रमुखता देते हुए इसे नौवहन एवं उड़ानों के लिए खुला व मुक्त रखना, क्वाड को फिर से खोलना और अपने पड़ोसियों के खिलाफ चीन की आक्रामकता का विरोध करना ट्रंप की सकारात्मक नीतियां थीं, लेकिन आसियान देश चीन विरोधी मोर्चे के लिए तैयार नहीं थे। 


उन्होंने अमेरिका के नाटो सहयोगियों से अपनी रक्षा के लिए और अधिक योगदान देने की मांग की। इस पर भी कोई अमेरिकी आपत्ति नहीं कर सकता। वह अपने नजरिये से लेन-देन कर रहे थे और उम्मीद करते थे कि दूसरे लोग मिल्टन फ्रीडमैन की बात को याद रखें कि 'मुफ्त में कोई चीज नहीं मिलती!' लेकिन अपने उद्देश्यों को हासिल करने के उनके तरीके ने कई लोगों को असहज कर दिया। मैक्सिको के राष्ट्रपति और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री के साथ बातचीत करते हुए अचानक फोन काट देना और नाटो नेताओं तथा कनाडाई प्रधानमंत्री के साथ खुलेआम झगड़ा करना कूटनीति नहीं थी, बल्कि यह धमकाना था। 


कहने का तात्पर्य यह है कि ट्रंप कोई स्टेट्समैन नहीं हैं; वह एक बेईमान, व्यापारी से राजनेता बने हैं, जिन्होंने राजनीतिक शक्ति का स्वाद चखा है और वह इसे जाने नहीं देना चाहते हैं। उन्होंने ध्रुवीकरण और विभाजन को बढ़ा दिया! लगता है, बेईमानी या निष्पक्ष ढंग से चुनाव जीतना ही उनका आदर्श था। उनके पास देश का नेतृत्व करने के लिए नैतिक मूल्यों की कमी थी। पूर्व रक्षा मंत्री विलियम कोहेन ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि ये धुर दक्षिणपंथी लंबे समय तक हमारे समाज का हिस्सा रहे हैं। हमें इनकी पहचान करनी चाहिए और मुकदमा चलाकर जेल भेजना चाहिए। उपराष्ट्रपति माइक पेंस लोकतंत्र एवं सांविधानिक दायित्व के पक्ष में खड़े हो गए हैं। फिलहाल लोकतंत्र जीत गया है, लेकिन यह चेतावनी की घंटी है! 

सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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