कृषि कानून: सर्वोच्च विडंबना (बिजनेस स्टैंडर्ड)

देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकार और किसान नेताओं के समक्ष एक ऐसा विकल्प प्रस्तुत किया है जो उन्हें तीनों कृषि कानूनों को लेकर बनी गतिरोध की स्थिति से बचने का अवसर देता है। ये तीनों कृषि कानून, दशकों पुराने कृषि विपणन कानूनों समेत कृषि क्षेत्र में तमाम आवश्यक सुधार लाने के लिए बनाए गए हैं। सोमवार को मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबड़े की अध्यक्षता वाले तीन न्यायाधीशों के पीठ ने इन कानूनों की वैधता से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि बेहतर होगा कि केंद्र सरकार इन कानूनों के क्रियान्वयन पर तब तक रोक लगा दे जब तक न्यायालय इस विषय पर चर्चा के लिए समिति का गठन नहीं करता। उन्होंने कहा कि यदि सरकार ऐसा नहीं करती तो न्यायालय को ऐसा करना होगा। गत माह पीठ ने संकेत दिया था कि वह सरकार और किसानों के प्रतिनिधियों की एक समिति बनाएगा जो गतिरोध समाप्त करने के रास्ते तलाश करेगी। मौजूदा हालात में ये दोनों हल समझदारी भरे प्रतीत होते हैं। परंतु यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर सरकार ने पहले ये कदम क्यों नहीं उठाए। आखिरकार सरकार हमेशा से प्रतिस्पर्धी हितों के बीच गतिरोध समाप्त करने के लिए समितियों का गठन करने का रास्ता अपनाती रही है। बहरहाल अब यह प्रस्ताव सर्वोच्च न्यायालय की ओर से आया है और दोनों पक्षों को यह अवसर देता है कि वे सम्मानजनक ढंग से इस गतिरोध को समाप्त करें। अस्थायी ही सही लेकिन गतिरोध समापन के ऐसे उपाय की आवश्यकता थी। यह विवाद दोनों पक्षों के लिए अस्थिरता लाने वाला है और सरकार के लिए ऐसी राजनीतिक जटिलताएं पैदा कर सकता था जिनसे वह बचना चाहेगी क्योंकि वह इस महीने के अंत तक कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम शुरू करने वाली है।

सर्वोच्च न्यायालय की घोषणाओं में तीन बातें ध्यान देने लायक हैं। पहली है उसके रुख में दिख रही कड़ाई। दूसरा, सर्वोच्च न्यायालय ने अपना वक्तव्य इस तथ्य के आधार पर दिया है कि किसी भी किसान प्रतिनिधि ने कानूनों को बेहतर नहीं बताया है। तीसरा, न्यायालय ने कानूनों पर रोक नहीं लगाई है बल्कि उसने कहा है कि इनके क्रियान्वयन को स्थगित रखा जाना चाहिए। तीनों बातें बताती हैं कि इस विषय पर सरकार शायद जनता का समर्थन गंवा चुकी है, भले ही इन कानूनों के पक्ष में कितनी भी मजबूत आर्थिक दलीलें क्यों न हों। यदि सरकार ने संसद में अपने भारी बहुमत पर भरोसा करते हुए कानून को पारित नहीं किया होता तो शायद न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर चिंतित लोग शायद इनके व्यापक प्रभाव को समझ पाते। इसके बजाय सरकार ने बेहद हड़बड़ी के साथ इन कानूनों को पारित किया। संसद का वह सत्र कोविड-19 के कारण सीमित कर दिया गया था और इस पर सांसदों के बीच समुचित चर्चा भी नहीं हो सकी।


इसके अलावा सरकार को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण की बड़ी वजह बन चुकी पराली जलाने वाले किसानों को जुर्माने से छूट और बिजली शुल्क दरों में इजाफा स्थगित करने वाले कदम उठाने पड़े। यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार ने पिछले महीने की घोषणा के मुताबिक कानूनों को स्थगित करके समिति के गठन की दिशा में पहल क्यों नहीं की। अब जबकि न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढ़ा की अध्यक्षता में समिति के गठन की घोषणा कर दी है तो यह पहल सरकार के हाथ से निकल गई। समिति गठन की पहल सर्वोच्च न्यायालय ने कर दी है तो सरकार ने कार्यकारी शक्ति न्यायपालिका के हाथ गंवा दी। कोयला, दूरसंचार और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की तरह इस मामले में भी कार्यपालिका क्षेत्र में न्यायपालिका का यह दखल अच्छा नहीं। मात्र एक खरीदार वाली पुरातन व्यवस्था को बदलने का विशिष्ट अवसर कमजोर हुआ है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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