हालांकि ईरान का यह कार्यक्रम कोई चोरी-छिपे नहीं है, इसके लिए उसने बाकयदा अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) को सूचित किया था। लेकिन जो हो, उसके इस फैसले से न सिर्फ पश्चिम एशिया बल्कि अमेरिका के साथ तनाव और बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। ईरान ने एक दशक पहले भी बीस फीसद यूरेनियम संवर्धन की दिशा में कदम बढ़ाया था और तब उसके और इजराइल के बीच टकराव ने गंभीर रूप ले लिया था।
इसलिए इस बार फिर से यह अंदेशा गहरा गया है कि ईरानी राष्ट्रपति का यह फैसला कहीं पश्चिम एशिया को युद्ध की आग में झोंकने वाला तो साबित नहीं होगा। यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम को लेकर ईरान शुरू से कहता आया है कि वह इसका इस्तेमाल परमाणु हथियार बनाने में नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण कार्यों के लिए ही करेगा। लेकिन अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने जिस तरह से ईरान की घेरेबंदी कर रखी है, उसमें वह अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु हथियारों का निर्माण नहीं करेगा, इसकी क्या गारंटी है!
आज पश्चिम एशिया में जिस तरह के हालात हैं, उसमें अपने को सुरक्षित रखने के लिए ईरान को परमाणु शक्ति संपन्न देश बनने की जरूरत महसूस हो रही है। उसे रूस और चीन का भी समर्थन हासिल है। लेकिन मध्य एशिया और पश्चिमी राष्ट्र इसलिए डरे हुए हैं कि अगर एक बार ईरान ने परमाणु हथियार बना लिए तो वह क्षेत्रीय शांति के लिए सबसे बड़ा संकट बन जाएगा। सबसे ज्यादा खतरा तो उसके परम शत्रु इजराइल को सता रहा है।
इसलिए ईरान पर लगाम कसने के लिए उस पर कड़ी पाबंदियां लगी हुई हैं। इससे ईरान की माली हालत खस्ता होती जा रही है। अमेरिका ने तो अपने सहयोगी देशों को उससे तेल खरीदने तक से रोक रखा है, जिनमें भारत भी शामिल है। हालांकि ईरान पर लगे प्रतिबंधों में ढील देने के लिए साल 2015 में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, चीन और जर्मनी ने ईरान के साथ एक करार किया था। इसके एवज में ईरान यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम रोक देने पर राजी हो गया था।
लेकिन वर्ष 2018 में अमेरिका इस समझौते से हट गया और ईरान को सबक सिखाने की ठान ली। ट्रंप चाहते थे कि वे किसी न किसी बहाने ईरान पर हमला करें और इसका फायदा उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में मिल जाए। लेकिन उनकी इस योजना पर पानी फिर गया।
ईरान को लेकर अमेरिका का रुख क्या रहेगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। लेकिन ईरान का यह कदम अमेरिका पर एक तरह का दबाव जरूर बनाएगा। ईरान की रणनीति यह है कि अमेरिका फिर से 2015 वाले समझौते शामिल हो जिससे कि ट्रंप हट गए थे। बाइडेन ने इसके संकेत भी दिए हैं।
बाइडेन के समक्ष भी चुनौतियां कम नहीं हैं। कोरोना महामारी से निपटना, अमेरिका की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाना, बेरोजगारी की समस्या, चीन के साथ टकराव जैसे कई मोर्चों पर उन्हें जूझना है। ऐसे में लगता नहीं है कि वे ईरान के साथ कोई गंभीर टकराव लेंगे। इस वक्त बेहतर यही है कि 2015 के समझौते में अमेरिका फिर से शामिल हो और ईरान को घेरने की मंशा छोड़ समझौते पर ईमानदारी से अमल करे। तब संभव है ईरान कोई अहितकारी कदम न उठाए।
सौजन्य - जनसत्ता।
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