विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी
जमशेदपुर कई अर्थों में बड़ा दिलचस्प शहर है। यहां 1907 में टाटा औद्योगिक घराने की नींव रखने वाले जमशेदजी नौशेरवानजी टाटा ने इलाके के पहले बडे़ कारखाने टिस्को की स्थापना के साथ ही भविष्य के एक बड़े शहर की शुरुआत भी की थी। आज अपनी सुदृढ़ नागरिक सुविधाओं, फुटबॉल और शिक्षण संस्थाओं के अतिरिक्त यह शहर मुझे इसके नागरिकों की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बहसों में सक्रिय भागीदारी और गहरी समझ के लिए उल्लेखनीय लगता है। इस शहर की मेरी चौथी यात्रा एक ऐसे कार्यक्रम के सिलसिले में थी, जिसका विषय शुरू में तो मुझे घिसा-पिटा लगा, पर वहां जाकर शहरियों की भागीदारी और जुड़ाव देखकर समझ में आया कि हाशिए पर अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, दलितों या औरतों के लिए ऐसे विमर्श क्या अर्थ रखते हैं? विषय भारतीय संविधान और उसके चलते देश की अखंडता या संप्रभुता को बचाने से जुड़ा था। आयोजक संस्था का नाम भी ‘देश बचाओ संविधान बचाओ अभियान’ है। विभिन्न राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी संगठनों से जुडे़ ये लोग संविधान को लेकर कितने चिंतित हैं, इसे इनके पिछले कुछ वर्षों के कार्यक्रमों की सूची देखकर समझा जा सकता है। कुछ ही दिनों में हम 72वां गणतंत्र दिवस मनाने वाले हैं। हाल-फिलहाल बहुत कुछ ऐसा घटा है, जिसके चलते नागरिकों को स्मरण कराना जरूरी है कि संविधान की हिफाजत की शपथ लेते रहना सिर्फ औपचारिकता नहीं है। आजादी के फौरन बाद मुसलमानों की एक पस्त भीड़ के सामने बोलते हुए मौलाना आजाद ने कहा था कि उन्हें तब तक अपनी हिफाजत की चिंता नहीं करनी चाहिए, जब तक 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ भारतीय संविधान सुरक्षित है। अब तो देश के दूसरे हाशिए के समुदायों को भी समझ में आ गया है कि अगर संविधान नहीं बचा, तो उनके एक सभ्य मनुष्य के रूप में जीने की संभावना भी नहीं बचेगी। इस संविधान के बनने और उसके जनता द्वारा स्वीकृत किए जाने की प्रक्रिया को बार-बार याद किए जाने की जरूरत है। 1947 से 1949 के बीच नई दिल्ली की संविधान सभा में जो कुछ घट रहा था, वह किसी शून्य से नहीं उपजा था। यह असाधारण जरूर था, पर अप्रत्याशित तो बिल्कुल नहीं कि रक्तरंजित बंटवारे के बीच काफी लोगों ने मान लिया था कि हिंदू और मुसलमान, दो अलग राष्ट्र हैं, इसलिए साथ नहीं रह सकते। तब संविधान सभा ने देश को ऐसा संविधान दिया, जो एक उदार और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की परिकल्पना करता है। यह अप्रत्याशित इसलिए नहीं कि देश की आजादी की लड़ाई जिन मूल्यों से परिचालित हो रही थी, वे आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की ही उपज थे। अस्पृश्यता या स्त्री-पुरुष समानता जैसे प्रश्नों पर संविधान सभा की दृष्टि एक आधुनिक दृष्टि थी और इसके चलते भारतीय समाज में दूरगामी परिवर्तन होने जा रहे थे। इसी तरह, एक करोड़ से अधिक लोगों के विस्थापन और विकट मार-काट के बीच भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अर्जित एकता की भावना ने ही इस धर्मनिरपेक्ष संविधान को संभव बनाया।
यह संविधान 26 नवंबर, 1949 को बन तो गया, पर इसे बनाने वाली सभा ही जनता से सीधे नहीं चुनी गई थी और इसकी वैधता के लिए जरूरी था कि इस पर जन-स्वीकृति की मोहर लगवाई जाए। इस जिम्मेदारी को निभाया पंडित जवाहरलाल नेहरू ने, जो प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ 1952 के पहले आम चुनाव के ठीक पहले एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए थे। चुनाव के पहले 1951 में उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर 300 सभाएं कीं। जालंधर से शुरू हुई उस शृंखला में उनका एक ही एजेंडा था, लोगों को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के लिए तैयार करना। हर सभा में वह इस सवाल से अपना कार्यक्रम शुरू करते, देश बंटवारे के साथ आजाद हुआ है, हमारे बगल में एक धर्माधारित इस्लामी हुकूमत कायम हो गई है, अब हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें भी एक हिंदू राज बना लेना चाहिए? इन सवालों के जवाब वह खुद अगले डेढ़ घंटे तक आसान हिन्दुस्तानी में देते। वह लगभग अशिक्षित श्रोताओं को अपने तर्कों से कायल करके ही भाषण समाप्त करते कि कैसे देश की एकता, अखंडता और तरक्की के लिए एक धर्मनिरपेक्ष भारत जरूरी है। समय ने उन्हें सही साबित किया। मजहब के नाम पर बना पाकिस्तान 25 वर्षों में ही टूट गया और तमाम हिचकोलों के बावजूद भारत एक मजबूत राह पर आगे बढ़ रहा है। जालंधर को पहले सभा-स्थल के रूप में चुनना नेहरू की आगे बढ़कर चुनौती स्वीकार करने की प्रवृत्ति का ही परिचायक था। गौर कीजिए, जालंधर की उनकी सभा के अधिसंख्य श्रोता वे हिंदू और सिख थे, जो कुछ ही दिनों पहले बने पाकिस्तान से अपने प्रियजनों और जीवन भर की जमा-पूंजी गंवाकर वहां पहुंचे थे। नेहरू जानते थे कि अगर इन हिंसा पीड़ितों को वह समझा सके कि धार्मिक कट्टरता बुरी चीज है, तो बाकी देश में उनका काम आसान हो जाएगा। यही हुआ भी, चुनावी नतीजों ने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान को वैधता प्रदान कर दी। जमशेदपुर के कार्यक्रम में न्यायविद फैजान मुस्तफा ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया। एक अच्छे संविधान के बावजूद अमेरिका में ट्रंप के उकसावे पर भीड़ संसद पर चढ़ दौड़ी, इस स्थिति में सारी सदिच्छाओं का क्या होगा? वहां कम से कम संस्थाओं में इतना दम तो है कि प्रारंभिक झटके के बाद उन्होंने अपने राष्ट्रपति का हुक्म मानने से इनकार कर दिया। क्या हमारी संस्थाएं इतनी मजबूत हैं? लोकतंत्र में जरूरी है कि विवाद या तो बातचीत से हल हों या फिर संविधान के दायरे में न्यायिक समीक्षा द्वारा, पर हाल का किसान आंदोलन इस मामले में निराशाजनक है कि सरकार ने मामले को सुप्रीम कोर्ट भेजने की बात की। संविधान की रोशनी में सरकार को खुद आगे बढ़कर समाधान की तलाश करनी चाहिए। हमारे तंत्र पर ऐसे खतरे तब तक मंडराते रहेंगे, जब तक हम संविधान में शामिल धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता या कानून के सामने सबकी बराबरी जैसे मूल्यों को अपनी जीवन पद्धति का अंग नहीं बनाएंगे। संविधान में दर्ज शब्द कितने खोखले हो सकते हैं, यह हमसे बेहतर कौन जान सकता है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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