नये भवन की राह (दैनिक ट्रिब्यून)

आखिरकार मोदी सरकार के महत्वाकांक्षी और बहुचर्चित नये संसद भवन यानी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को शीर्ष अदालत से हरी झंडी मिल ही गई। हालांकि, नये भवन के लिये भूमि पूजन पहले ही हो चुका है लेकिन निर्माण और पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को लेकर दायर याचिकाओं के चलते निर्माण कार्य विधिवत रूप से प्रारंभ नहीं हो सका था। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोकतंत्र के इस सबसे बड़े मंदिर की गरिमा की दृष्टि से इससे जुड़े विवादों का अब पटाक्षेप हो जाना चाहिए। बशर्ते सरकार का व्यवहार भी आलोचनाओं के प्रति संवेदनशील हो, जिससे निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप इसका निर्माण हो सके। अन्य बातें सामान्य रहें तो नये संसद भवन के निर्माण का लक्ष्य अगस्त-2022 तक रखा गया है जब देश आजादी की हीरक जयंती मना रहा होगा। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बैंच ने दो:एक के बहुमत से इसके निर्माण से जुड़ी बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया। दरअसल भूमि उपयोग के परिवर्तन को लेकर दिसंबर, 2019 की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिकाओं में दलील दी गई थी कि अधिसूचना ने खुले और हरियाली के स्थानों से लोगों को वंचित करके नागरिक जीवन के अधिकारों का उल्लंघन किया है। साथ ही पारदर्शिता की कमी के चलते निर्माण और पर्यावरण कानूनों के अतिक्रमण का भी आरोप लगाया गया था। कई राजनीतिक दल कोविड संकट में चरमराई अर्थव्यवस्था में इस भव्य परियोजना पर होने वाले खर्च को लेकर भी सवाल उठाते रहे हैं। पर्यावरण चिंताओं से सहमति जताते हुए शीर्ष अदालत ने सरकार को स्मॉग टावर लगाने के भी निर्देश दिये हैं ताकि प्रदूषण की चिंताओं को दूर किया जा सके। साथ ही पर्यावरण व वन मंत्रालय के कायदे-कानूनों के अनुपालन की भी बात कही गई है। ऐसे ही कई अन्य मुद्दों को लेकर विपक्षी नेताओं ने इस बाबत आयोजित कार्यक्रम से खुद को अलग रखा था। अब जब अदालत से इसके निर्माण को मंजूरी मिल गई है तो सरकार को सभी राजनीतिक दलों को साथ लेकर उनकी चिंताओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

सरकार का दावा है कि सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट मौजूदा संसद भवन की कमियों को दूर करेगा। मसलन अपर्याप्त स्थान, संरचनात्मक कमजोरियां और सुरक्षात्मक चिंताएं। सरकार कहती है कि विभिन्न मंत्रालयों के भवनों के लिये जो किराया दिया जाता है और अन्य सुविधाओं के चलते प्रति वर्ष एक हजार करोड़ रुपये की बचत होगी। इसके बावजूद इस राष्ट्रीय महत्व के प्रोजेक्ट को लेकर राजनीतिक दलों की सहमति अपरिहार्य है क्योंकि यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर है और इसमें हर राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व होगा। बहरहाल, भवन के प्रक्रियागत व पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर न्यायालय द्वारा निर्देश दिये जाने के उपरांत इसके निर्माण में गति आयेगी। इसमें दो राय नहीं कि लगभग एक सदी के बाद परिपक्व और विस्तारित लोकतंत्र में लोकतांत्रिक गतिविधियों के सुचारु ढंग से संचालन के लिये नये भवन की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। निस्संदेह, इस भवन से आजादी के बाद देश के जनमानस के गहरे अहसास जुड़े रहे हैं, जो लोकतांत्रिक गरिमा का भी प्रतीक रहा है। इस भवन का निर्माण परतंत्र भारत में हुआ था, जो स्वतंत्र भारत में समृद्ध लोकतंत्र की जरूरतों को पूरा करने में अपनी सीमाओं से बंधा नजर आ रहा था। इसके विस्तार व मरम्मत आदि की भी एक सीमा रही है। यह भी जरूरी था कि यह बदलती जरूरतों के अनुरूप हो। 21वीं सदी में परिसीमन आदि से यदि चुने प्रतिनिधियों की संख्या में वृद्धि हो तो किसी तरह की परेशानी न हो। साथ ही हाईटैक होती दुनिया में बेहतर तकनीक से संसद भवन का समृद्ध होना भी जरूरी है। सवाल मौजूदा जरूरतों का ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की आकांक्षाओं के अनुरूप भी इसे तैयार करने की जरूरत है, जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर भी खरा उतरे। साथ ही ध्यान रखा जाये कि नये भवन का वास्तु कुछ ऐसा हो कि नयी दिल्ली की भवन संस्कृति के बीच यह नया भवन अलग-थलग नजर न आये। 

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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