शेखर पाठक
सौ साल पहले उत्तराखंड (तत्कालीन ब्रिटिश कुमाऊं) में कुली-बेगार की अपमानजनक प्रथा के खिलाफ हुआ आंदोलन अपनी सफल पराकाष्ठा पर पहुंचा था। उस आंदोलन के साथ जंगलात के हकों को बहाल कराने वाला आंदोलन भी चला था। ये दोनों आंदोलन स्वतंत्र भी थे और साथ-साथ भी, क्योंकि इनकी जनता और नेता एक थे। बेगार के अंतर्गत जबरन मुफ्त श्रम और मुफ्त सामग्री प्राप्त करने की व्यवस्था थी। उतार के अंतर्गत मूल्य देय होता था, जो अधिकतर नहीं दिया जाता था। पटवारी और प्रधान इसके स्थानीय व्यवस्थापक थे, जो चुली-कुली (हर चूल्हे यानी परिवार से एक कुली) नियम के अनुसार हर परिवार से कुली मांगते थे। जमीनी बंदोबस्तों में मनमानी धाराएं डालकर बेगार को नियमबद्ध बना दिया गया था। जब पत्रों और काउंसिलों में बेगार की अति पर सवाल उठे, तो एक लाट ने यहां तक कहा था कि ‘कुमाऊं से बेगार उठाने की मांग करना गोया चांद मांगना हो।’
यह आंदोलन स्थानीय उद्यम, संगठन और मुहावरे के साथ सुव्यवस्थित प्रचार और प्रेस की शक्तिशाली भूमिका के कारण सफल हुआ। अल्मोड़ा अखबार, गढ़वाल समाचार, गढ़वाली, पुरुषार्थ, शक्ति जैसे पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। शक्ति तो आजादी की लड़ाई का मुखपत्र ही बन गया। इसके अधिकांश संपादक जेल गए। वर्ष 2018 में शक्ति ने अपने सौ यशस्वी साल पूरे किए। इस आंदोलन में ग्रामीण असंतोष और प्रतिरोध कस्बाती जागृति और जिम्मेदारी से जुड़ सका। एक ओर इस आंदोलन ने बेगार की प्रथा को सदा के लिए समाप्त कर दिया, वहीं तीन हजार वर्गमील में फैले जंगलों में ग्रामीणों के हक वापस किए गए। जंगलात के बहुत से अन्य अधिकार बहाल हुए। इस आंदोलन में एक ओर कस्बाई पत्रकार, वकील, रिटायर्ड अधिकारी जुड़े थे, दूसरी ओर गांवों से शहर आया या गांवों में सक्रिय रहा वर्ग था। समाज के सरकार परस्त हिस्सों को आंदोलन ने झकझोर दिया था। जंगलों को राज्य अधिकार में लेने का सिलसिला तो 1860 के बाद ही शुरू हो गया था, जो 1878, 1893 और 1911 के बाद बढ़ता चला गया। जंगलों के बिना पहाड़ों में खेती, पशुपालन, कुटीर उद्योग, वैद्यकी, भवन निर्माण, सांस्कृतिक कार्यकलाप संभव नहीं थे।
इसी तरह तमाम सरकारी विभागों के विस्तार के साथ बेगार का दबाव और नौकरशाही की निर्ममता भी बढ़ी, जिस कारण पहले बेगार के खिलाफ व्यक्तिगत आक्रोश एक असंगठित विरोध में बदला। लेकिन बेगार और जंगलात की नीतियों की अति ने असंगठित विरोध को संगठित जनांदोलन में बदलने में योग दिया। इस तरह यह आंदोलन किसानों और कस्बाई प्रबुद्धों का साझा कार्यक्रम बन गया, जिसे 1916 में स्थापित ‘कुमाऊं परिषद’ के जरिये आगे बढ़ाया गया। अगले चार वर्षों में सुसंगठन का कार्य इतनी तैयारी से हुआ कि 1920 के ‘कुमाऊं परिषद’ के चौथे अधिवेशन में युवाओं का नेतृत्व उभर कर सामने आ गया। ग्रामीण आंदोलनकारियों की पुकार सुन वे कांग्रेस अधिवेशन से लौटकर बागेश्वर आए, जहां उत्तरायणी मेले में ग्रामीणों की बड़ी उपस्थिति होती थी। बागेश्वर के पास ही चामी गांव में एक जनवरी 1921 को बेगार के विरुद्ध बड़ी सभा हो चुकी थी। कस्बाती प्रबुद्धों के आने से प्रतिरोध और आगे बढ़ा और 12-14 जनवरी, 1921 को बागेश्वर में जनसभाओं, प्रदर्शनों के बाद न सिर्फ सरकार को चुनौती दी गई, बल्कि बेगार के रजिस्टर सरयू में बहा दिए गए। नतीजतन उसी साल सरकार को कुली-बेगार प्रथा बंद करनी पड़ी।
प्रतिरोध की ऊर्जा जितनी स्थानीय स्तर पर जन्मी, उतनी ही सीधे राष्ट्रीय संग्राम से भी छनकर आ रही थी। कस्बों से विकसित बद्री दत्त पाण्डे, हरगोविन्द पंत, गोविन्द बल्लभ पंत, चिरंजीलाल या गांवों से विकसित अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, मोहनसिंह मेहता, लक्ष्मी दत्त शास्त्री, केशर सिंह रावत, मंगतराम खंतवाल, हरिकृष्ण पाण्डे, ईश्वरी दत्त ध्यानी, हयात सिंह, बद्रीदत्त वैष्णव, प्रेमसिंह गड़िया या विश्वविद्यालयों से लौटे भैरवदत्त धूलिया, बडोला बंधु और प्रयागदत्त पंत या प्रथम विश्वयुद्ध से लड़कर लौटे नौजवान या आम किसान सब एक स्वर और शक्ति में बोलने लगे थे। वर्ष 1878 में सोमेश्वर के ग्रामीणों द्वारा बेगार न देना और सामूहिक जुर्माना भुगतना और 1903 में खत्याड़ी के गोपिया और साथियों द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट जाकर बेगार को गैर कानूनी घोषित किए जाने का निर्णय लाना ग्रामीण प्रतिरोध के प्रतीक थे।
इसीलिए 1929 में जब महात्मा गांधी कुमाऊं आए, तो वह बागेश्वर जाना नहीं भूले। यंग इण्डिया में उन्होंने कुमाऊं के बेगार और जंगलात आंदोलनों को ‘रक्तहीन क्रांति’ कहा तथा इसे जनता की संगठन क्षमता और सामूहिक शक्ति से जोड़ा। इन दो असाधारण आंदोलनों की शताब्दी के मौके पर उत्तराखंड की नई पीढ़ी को पिछले सौ साल के जनांदोलनों की विरासत पर सोचने और विश्लेषण करने का विवेक अर्जित करना चाहिए। यह भी कि औपनिवेशिक सत्ता रही हो या हमारी अपनी सरकारें, उत्तराखंड की जनता ने सड़क, डोला पालकी का हक, गढ़वाल कमिश्नरी, वनाधिकार, नशाबंदी, कुमाऊं तथा गढ़वाल विश्वविद्यालय, नए जिले आदि और अंततः अलग राज्य सिर्फ और सिर्फ जनांदोलनों से अर्जित किए, किसी राजनीतिक दल के उद्यम से नहीं। नए राज्य के दो दशक बहुत उम्मीद नहीं दिलाते। पर प्रतिकारों की राष्ट्रीय और स्थानीय विरासत तटस्थता और उदासी को नई ऊर्जा से युक्त कर सकती है।
सौजन्य - अमर उजाला।
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