सुनीता नारायण
पर्यावरण संबंधी चुनौतियों पर चर्चा के लिए 1972 में स्टॉकहोम में दुनिया भर के नेता इकट्ठा हुए थे। उस समय चिंताएं स्थानीय पर्यावरण को लेकर थीं, जलवायु परिवर्तन या ओजोन परत में हो रहे क्षरण का कोई जिक्र भी नहीं था। ये सारे मुद्दे उसके बाद सामने आए हैं। उस समय पर्यावरण में फैल रहे जहर का मुद्दा चर्चा में था क्योंकि पानी एवं हवा दूषित हो रही थी। सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवॉयरनमेंट के संस्थापक-निदेशक अनिल अग्रवाल स्टॉकहोम में हुए उस पहले संयुक्त राष्ट्र मानव पर्यावरण सम्मेलन में मौजूद थे। वह अक्सर वहां की झीलें औद्योगिक अवशिष्ट के कारण प्रदूषित होने का जिक्र किया करते थे। वे झीलें इतनी गंदी थीं कि उनके पानी में कैमरा फिल्म भी डेवलप की जा सकती थी। लेकिन अब वे झीलें साफ हो चुकी हैं। यानी पिछले 50 वर्षों में काफी कुछ बदल चुका है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। पर्यावरण में फैली विषाक्तता अब भी चिंता का मुद्दा है, देश स्थानीय स्तर पर भले ही साफ-सुथरे हुए हैं लेकिन उन्होंने वैश्विक वायुमंडल में उत्सर्जन फैलाने में योगदान दिया है। अब हमारे पास वक्त ही नहीं रह गया है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बड़ी तेजी से बेकाबू हो रहे हैं।
इसी वजह से स्टॉकहोम+50 सम्मेलन करीब आने के साथ हम अपने इर्दगिर्द तेजी से अन्यायपूर्ण होती जा रही दुनिया देख रहे हैं जिसमें गरीबी एवं हाशिये पर धकेले जाने की घटना बढ़ रही है और जलवायु परिवर्तन से जुड़े जोखिम गरीबों के साथ-साथ अमीरों को भी लपेट रहे हैं। इसीलिए अगले साल स्टॉकहोम सम्मेलन के 50 वर्ष पूरे होने पर हमें न सिर्फ समस्या का जिक्र करना चाहिए बल्कि आगे की राह भी दिखानी होगी। हमें खपत एवं उत्पादन पर भी चर्चा करने की जरूरत है। यह सबसे असहज करने वाली चर्चा है। जब हमने ओजोन, जलवायु, जैव-विविधता, मरुस्थलीकरण एवं खतरनाक अवशिष्ट जैसे तमाम समझौतों के बारे में वैश्विक पारिस्थितिकीय मसौदे बनाए तो दुनिया को यह अहसास हुआ कि एक देश ने सीमा ही लांघ ली। उसे वैश्विक स्तर पर सहयोगपूर्ण ढंग से काम करना था क्योंकि हम एक अंतर्निर्भर विश्व में रहते हैं।
इस दौरान हमने मुक्त व्यापार पर एक और समझौता किया जो आर्थिक भूमंडलीकरण समझौता था। लेकिन हम कभी समझ ही नहीं पाए कि पारिस्थितिकीय एवं आर्थिक भूमंडलीकरण के ये दोनों मसौदे किस तरह एक-दूसरे को काटेंगे। इसका नतीजा यह हुआ कि हमने मेहनत कर एक ऐसा आर्थिक मॉडल खड़ा कर दिया है जो श्रम की कीमत एवं पर्यावरण में रियायत देने पर आधारित है। हमने उत्पादन को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है जहां ये लागत कम हैं, हमने हद से ज्यादा उत्पादन का ढांचा खड़ा किया और उत्पाद पहले से सस्ते एवं जल्द निपटाने लायक हो गए हैं। लेकिन हमने यह भी सुनिश्चित किया है कि सभी देश वृद्धि का यही मॉडल अपना रहे हैं। सभी देश वैश्विक कारखानों का हिस्सा बनना चाहते हैं जिनमें यथासंभव सस्ते उत्पाद पैदा होते हैं। यह उत्पादन पर्यावरण से जुड़े सुरक्षात्मक कदमों एवं श्रम परिस्थितियों की कीमत पर होता है। दुनिया के गरीब अधिक उत्पाद हासिल कर अधिक उपभोग करने एवं अधिक कचरा पैदा करने की सीढ़ी पर सवार हैं।
आज कोविड-19 महामारी ने अधिकतम सस्ता उत्पाद पैदा करने और अधिकतम खपत के इस बेलगाम सफर को रोका है। लेकिन दुनिया में जब हालात पटरी पर लौटने लगे हैं तो उसके पास चीजों को अलग ढंग से करने का विकल्प मौजूद है। यह भी इसलिए हो पाया है कि कोविड-19 ने हमें कुछ ऐसे सबक सिखाए हैं जिन्हें हमें भूलना नहीं चाहिए।
पहला सबक, हमने श्रम खासकर प्रवासी श्रमिकों की अहमियत समझी है। वो पहले अदृश्य एवं अवांछित होते थे लेकिन अब उद्योग जगत के लिए वह अहम हैं। हमने देखा है कि महामारी की वजह से लगी सख्त पाबंदियों के बाद प्रवासी मजदूर किस तरह अपने गांव-घर लौट पाए? और उनके लौटने का उत्पादन पर कैसा असर देखा गया। हम देख सकते हैं कि उद्योग जगत अपने कामगारों को वापस लाने के लिए किस शिद्दत से प्रयास कर रहा है, उन्हें बेहतर मजदूरी एवं कामकाजी हालात की पेशकश भी कर रहा है। हालांकि इससे उनकी उत्पादन लागत बढ़ जाएगी।
दूसरा, आज हम नीले आसमान एवं साफ हवा की कीमत समझते हैं, हमें पता है कि लॉकडाउन से प्रदूषण कम हुआ था और अब हम इसकी कद्र करते हैं। पर्यावरण में इस निवेश से उत्पादन लागत भी बढ़ जाएगी। तीसरा, हम भूमि-कृषि-जल प्रणालियों में निवेश का मूल्य समझते हैं। अपने गांव लौटने वाले लोग अब नए सिरे से आजीविका जुटा रहे हैं। यह समय टिकाऊ, प्रकृति के अनुकूल एवं स्वास्थ्य के लिए अच्छी खाद्य उत्पादन प्रणालियों से लचीला भविष्य सुरक्षित करने का है।
चौथा, अब हम घर से काम करने (वर्क फ्रॉम होम) वाली दुनिया में रहते हैं और नया चलन आने पर भी हम ऐसी मिली-जुली व्यवस्था ही चाहेंगे जिसमें दफ्तर से दूर रहते हुए काम करने और आवागमन का तनाव कम करने के साथ हमारी दुनिया को समृद्ध करने वाले संवाद एवं संपर्क भी मुमकिन हो। इससे उपभोग की परिपाटी भी बदलेगी। पांचवां, सरकारें वित्तीय रूप से तनावग्रस्त हो चुकी हैं। उन्हें अधिक खर्च करना है, लिहाजा वे बेजा खर्च नहीं कर सकती हैं। वे चक्रीय अर्थव्यवस्थाओं में निवेश करना चाहेंगी, उन्हें अवशिष्ट से संसाधन बनाने और कम चीजों से अधिक काम निकालने होंगे।
इन सबमें हमारी खपत एवं उपज के तरीके बदलने की क्षमता है। लिहाजा स्टॉकहोम सम्मेलन के 50 साल पूरे होने पर जब दुनिया फिर इक_ा होगी तो हमारे पास मौका होगा कि हम इस बार सही ढंग से काम करें। इस बार हमारे सामने जलवायु संकट के तौर पर वजूद का संकट है। हम सिर्फ बातें करने में समय नहीं गंवा सकते हैं। अब तो हमारे सामने यह विकल्प है ही नहीं।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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