- भुवनेश जैन
सेना और पुलिस। देश में मुख्य रूप से ये दो बल हैं। सेना पर दुश्मन से देश की सीमाओं की रक्षा करने की जिम्मेदारी है तो पुलिस पर अपराधियों से देश की जनता को बचाने की। आज आजादी के 74 साल बाद इन दोनों बलों की आम जनता में छवि की तुलना की जाए तो दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े बलों की स्थिति सामने आती है। सेना के लिए हर देशवासी के हृदय में सम्मान के भाव प्रकट होते हैं, वहीं पुलिस के लिए ठीक उल्टे भाव हैं। आम जनता पुलिस थानों के पास से गुजरने में ही घबराने लगी है। पता नहीं किस अपराध में पकड़ कर अंदर डाल दें।
मैंने इसी स्तंभ में दिनांक 11 मार्च 2021 को महिलाओं के साथ पुलिस की ज्यादतियों पर 'निर्वस्त्र होती पुलिस' शीर्षक से टिप्पणी लिखी थी। इस टिप्पणी को पढऩे के बाद जनता के जितने फोन, संदेश या पत्र आए, उतने पहले शायद ही कभी आए होंगे। मुझे अंदाज नहीं था कि राजस्थान की जनता में अपनी ही पुलिस के प्रति इतना आक्रोश है। यह एक चिंतनीय विषय बन चुका है, जिस पर जल्दी से जल्दी विचार कर सुधारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। राजस्थान की छवि देश के सबसे कम अपराधों वाले और अमन-चैन वाले राज्य की रही है। इसमें यहां के अमन पसंद नागरिकों के साथ ही पुलिस की भी भूमिका रही है। फिर पिछले कुछ वर्षों से यह भूमिका बदली हुई क्यों दिखाई दे रही है? बजरी माफियाओं से मिलीभगत, हिरासत में अत्याचार, महिलाओं के साथ ज्यादतियां और सबसे बड़ी बात- बिना गाली-गलौच बात नहीं करने की प्रवृति, इन सबने पुलिस के प्रति जनता के विश्वास को डगमगा दिया है। लोग मजाक में कहने लगे हैं कि राजस्थान पुलिस को अपना ध्येय वाक्य 'अपराधियों में भय, जनता में विश्वास' से बदल कर 'जनता में भय, अपराधियों में विश्वास' रख देना चाहिए। पुलिस की छवि में आई गिरावट के कई कारण गिनाए जा सकते हैं। इनमें राजनीति का अपराधीकरण, पुलिस सुधार आयोग की रिपोर्टों की उपेक्षा, संसाधनों की कमी, कठोर दिनचर्या, सम्पूर्ण समाज में आई नैतिक गिरावट का असर जैसे बीसियों कारण हो सकते हैं। लेकिन इन कारणों की आड़ में पुलिस में आ रही चारित्रिक गिरावट को जायज नहीं ठहराया जा सकता।
यह भी सही है कि पूरी पुलिस फोर्स में सभी लोग गड़बड़ नहीं है। लेकिन सबकुछ होते देखते हुए भी मौन रहने वाले भी गिरावट में बराबर के भागीदार माने जाएंगे। व्यवहारगत खामियों का बड़ा कारण प्रशिक्षण की कमी है। सेना में जहां वर्षपर्यंत तरह-तरह के प्रशिक्षण चलते रहते हैं, पुलिस में एक बार भर्ती हो जाने के बाद प्रशिक्षण पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। यहां तक कि फिटनेस टेस्ट भी नहीं होते। दूसरी ओर, जनता से दूरी के बीच संवादहीनता की दीवारें खड़ी हैं। जनता का भरोसा हिल चुका है। दरअसल जब कोई पीडि़त थाने पर शिकायत दर्ज कराता है तो वहीं तैनात पुलिस दूसरे पक्ष को भी परस्पर शिकायत दर्ज कराने के लिए उकसाती है। ऐसे में किसी को न्याय नहीं मिलता, उल्टे दोनों पक्ष पुलिस की 'सेवा' में जुट जाते हैं। राजनीति का भी कुछ हद तक अपराधीकरण हो चुका है। ऐसे में कैसे उम्मीद की जाए कि पुलिस स्वतंत्र होकर न्याय करेगी। सवाल यह भी है कि क्या सरकार महत्वपूर्ण पदों पर चयन से पहले अफसरों का सर्विस रिकॉर्ड जांचती है। बल्कि यह देखा जाता है कि कौन अफसर पार्टी और सरकार के कितने हित निभा पाएगा।
उपरोक्त सब बातें राजस्थान के भविष्य के लिए चिंताजनक हैं। हम अपनी आने वाली पीढिय़ों के लिए बेहतर वातावरण छोडऩा चाहते हैं तो नागरिकों और पुलिस के बीच संवाद कायम करने के लिए कदम उठाने होंगे। पुलिस भी सरकार का अंग है और सरकार की स्वामी जनता है। इसलिए जनता को ही आगे आना होगा। राजस्थान पत्रिका अपने पाठकों के भरोसे के बूते पर जनता और पुलिस के बीच आई संवादहीनता को तोड़कर संवेदनशील वातावरण निर्मित करने का बीड़ा उठा रहा है। इसके लिए पुलिस के शीर्ष प्रशासन के सहयोग से पूरे प्रदेश में पुलिस के साथ जनता का संवाद बनाने का कार्यक्रम है ताकि दोनों एक दूसरे को समझ सकें। खोया हुआ विश्वास पुन: लौट सके और सबसे बढ़कर प्रदेश की पुलिस की छवि पुन: उज्ज्वल हो सके। यह कार्यक्रम हम आने वाले कुछ महीनों तक चलाना चाहेंगे। समाज के विभिन्न वर्गों के साथ पुलिस विभाग में विभिन्न स्तर पर चर्चाएं होंगी। उम्मीद की जा सकती है कि संवादहीनता की दीवारें गिरेंगी तो भरोसे की इमारतें आकार लेंगी। ऐसा हो सका तो राजस्थान पुन: शांति और कानून-व्यवस्था के मामले में अग्रणी प्रदेश बन जाएगा।
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