कारोबार की नेता स्त्रियां ( नवभारत टाइम्स)

जानी-मानी अकाउंटिंग फर्म ग्रैंट थॉर्नटन की ओर से बिजनेस लीडरशिप के मामले में महिलाओं की स्थिति पर जारी की गई ताजा सालाना रिपोर्ट पहली नजर में जरूर राहत देने वाली है। इस सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं को लीडरशिप रोल देने के मामले में भारतीय उद्योग जगत फिलिपींस और साउथ अफ्रीका के बाद दुनिया में तीसरे स्थान पर आ गया है। यहां सीनियर मैनेजमेंट में महिलाओं का प्रतिशत 39 है जो वैश्विक औसत (31 फीसदी) से कहीं अधिक है। निश्चित रूप से यह तथ्य भारतीय कॉरपोरेट जगत की अच्छी तस्वीर पेश करता है, हालांकि यह बदलाव हाल के वर्षों की देन है। ग्रैंट थॉर्नटन की ही 2015 की सर्वे रिपोर्ट में इस पहलू से भारत की स्थिति खासी कमजोर नजर आती है। उस साल बिजनेस लीडरशिप रोल में महिलाओं का प्रतिशत हमारे यहां महज 15 दर्ज किया गया था और सूची में भारत को नीचे से तीसरे स्थान पर रखा गया था। 14 फीसदी के साथ जर्मनी और 8 फीसदी के साथ जापान ही उससे नीचे थे। अगर इन पांच वर्षों में बिजनेस जगत में महिलाओं की स्थिति में ऐसा जबर्दस्त अंतर आया है तो यह यूं ही नहीं हो गया होगा। इसके पीछे सोचे-समझे प्रयासों की बड़ी भूमिका है।




हालांकि यह बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर्स में महिलाओं को शामिल करने जैसा औपचारिक मामला नहीं है। सीईओ, एमडी, सीओओ और सीएफओ जैसे महत्वपूर्ण पद कोरी प्रतिष्ठा की चीज नहीं हैं। इन पर बैठे व्यक्ति की योग्यता से कंपनी का प्रदर्शन प्रभावित होता है। बावजूद इसके, कॉरपोरेट जगत में महिलाओं की बेहतर स्थिति को अगर हम भारतीय समाज में महिलाओं की हकीकत से जोड़ लेंगे तो गलती करेंगे। समाज की तो छोड़िए, देश के कुल वेतनभोगी कार्यबल में भी महिलाओं की स्थिति पर नजर डाली जाए तो वह दिनोंदिन पहले से कमजोर ही होती नजर आ रही है। भारतीय थिंक टैंक सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी) की रिपोर्ट के मुताबिक शहरी श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी (यूएफएलपी) 2019-20 में मात्र 9.7 फीसदी थी, जो अप्रैल 2020 में और कम 7.35 फीसदी दर्ज की गई जबकि नवंबर 2020 तक आते-आते यह उससे भी घटकर 6.9 फीसदी हो गई।


इसका मतलब साफ है कि लॉकडाउन का खामियाजा महिला कर्मचारियों को पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा भुगतना पड़ा है। इससे कंपनी प्रबंधन की नजर में महिला कर्मचारियों की हैसियत का अंदाजा मिलता है। समाज में एक इंसान के रूप में भी महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने की जो शुरुआत संसद में महिला आरक्षण विधेयक लाए जाने और फिर 2012 के निर्भया कांड की प्रतिक्रिया में उभरे जनांदोलनों से हुई थी, वह प्रक्रिया भी इधर तेजी से पीछे छूटती नजर आ रही है। यौन उत्पीड़न की घटनाओं को लिया जाए या उनपर शासन तथा समाज की प्रतिक्रिया को या फिर न्यायपालिका से आने वाले फैसलों को, हर स्तर पर चीजें स्त्री हितों के खिलाफ ही जा रही हैं। ऐसे में बिजनेस लीडरशिप रोल से जुड़े इन आंकड़ों पर बहुत ज्यादा खुश होने की गुंजाइश नहीं है।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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