किसानों के हमदर्द (जनसत्ता)

बिना किसी लागलपेट के बेबाकी से अपनी बात कह देने के लिए जाने जाते रहे वरिष्ठ राजनेता और मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने एक बार फिर किसानों के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद की है। रविवार को गृह जिले बागपत में अपने अभिनंदन समारोह में मलिक ने खुल कर किसान आंदोलन का समर्थन किया और प्रधानमंत्री व गृह मंत्री को किसानों को और नाराज नहीं करने तक की नसीहत दे डाली।

मलिक ने यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि नए कृषि कानून किसी भी रूप में किसानों के हितों में नहीं हैं। यह कोई पहला मौका नहीं है जब वे किसानों के पक्ष में बोले हैं। डेढ़ महीने पहले भी उन्होंने केंद्र सरकार को सचेत करते हुए कहा था कि किसानों के आंदोलन को दबाने के बजाय उनकी चिंताओं को सुनना चाहिए। मलिक की इन चिंताओं का संदेश दूर तक जाता है। वे खुद एक किसान परिवार से हैं। ऐसे में भला किसानों के दुखदर्द को उनसे ज्यादा कौन समझ सकता है! किसान आंदोलन के मुद्दे पर साफगोई से वे जो कहते आए हैं, उसे हल्के में तो नहीं लिया जा सकता।

सत्यपाल मलिक इस वक्त संवैधानिक पद पर हैं। इस पद की अपनी गरिमा और सीमाएं हैं। इसलिए कोई सोच भी नहीं सकता कि एक राज्यपाल अतिसंवेदनशील मसले पर केंद्र सरकार को नसीहत देने वाली बातें कह सकता है। राज्यपाल यों भी केंद्र सरकार के प्रतिनिधि से ज्यादा कुछ नहीं होते और आमतौर पर वे उस सत्ता की हां में हां मिला कर ही चलते हैं जिसमें उन्हें यह पद नवाजा जाता है। लेकिन औरों से अलग सत्यपाल मलिक दूसरे मिजाज के रहे हैं।


वे सरकार से ज्यादा परवाह सच की करते हैं। उन्हें जो सच लगता है, उसे कहने में कोई संकोच नहीं होता, भले वह किसी की नजर में न्यायोचित हो या नहीं। जब वे जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल थे तो उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों की भूमिका पर टिप्पणी करते यहां तक कह डाला था कि कश्मीर में राज्यपाल के पास अब तक कोई काम नहीं होता था, वह दारू पीकर गोल्फ खेलता था। इसी तरह उन्होंने एक बार यह कह कर सनसनी फैला दी थी कि आतंकवादियों को निर्दोष जवानों को नहीं, बल्कि उन नेताओं और अफसरों को मारना चाहिए जिन्होंने कश्मीर को लूट कर खा लिया है।

जिस निष्पक्षता और मुखरता से मलिक ने किसानों की मांगों का समर्थन किया है, उससे यह संदेश तो जाता है कि किसान आंदोलन की मांगें अपनी जगह जायज हैं। कई पूर्व नौकरशाहों ने भी किसानों की मांगों को जायज बताया है। जाहिर है, नए कृषि कानूनों में कुछ तो ऐसा है जिससे किसान उद्वेलित हैं। मलिक की इस बात को कोई कैसे गलत कहेगा कि किसान प्रतिदिन गरीब होता जा रहा है और दूसरी ओर सरकारी अफसरों का वेतन नियत समय पर बढ़ता जाता है।

हकीकत तो यही है कि किसानों का बड़ा वर्ग गरीबी, कर्ज जैसी समस्याओं से घिरा है और इसीलिए किसानों को आत्महत्या जैसा कदम उठाने के मजबूर होना पड़ता है। किसान आंदोलन को साढ़े तीन महीने से ज्यादा हो चुके हैं। गतिरोध से कोई हल नहीं निकलने वाला, बल्कि समस्या और जटिल रूप लेती जा रही है। अगर सरकार को लगता है कि किसान एक दिन थक-हार कर लौट जाएंगे, तो यह भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं। मलिक ने उम्मीद के साथ कहा है कि अगर सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून ही बना दे तो किसान मान जाएंगे। हो सकता है इसी में समाधान छिपा हो! इसलिए सरकार और किसानों को हठधर्मिता छोड़ कर एक बार फिर से वार्ता शुरू करनी चाहिए।

सौजन्य - जनसत्ता।
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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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