ऋतु सारस्वत
कोरोना काल में महिलाएं घर से नौकरी तक कई चुनौतियों का सामना कर रही हैं। भारत में कामकाजी महिलाएं काम व वेतन के लिए कड़ी लड़ाई लड़ रही हैं। उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कमतर आंका जा रहा है। ज्यादातर घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ उन पर है। यह खुलासा लिंक्डइन अपॉर्चुनिटी इंडेक्स, 2021 की सर्वे रिपोर्ट में हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, एशिया-प्रशांत देशों में 22 प्रतिशत महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अपेक्षित महत्व नहीं दिया जाता। यह विचारणीय है कि जब सामान्य परिस्थितियों में भी महिलाओं के लिए रोजगार प्राप्त करना पुरुषों की तुलना में कठिन होता है, तब अर्थव्यवस्था की बदहाली के दौर में महिलाओं के लिए रोजगार प्राप्त करना कैसे संभव होगा।
बीते वर्ष यूएनडीपी की रिपोर्ट ‘जेंडर सोशल नॉर्म्स इंडेक्स' ने महिलाओं को लेकर स्थापित पूर्वाग्रहों को उद्घाटित किया। यह रिपोर्ट उन 75 देशों के अध्ययन पर आधारित थी, जहां विश्व की करीब 80 फीसदी आबादी रहती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 40 प्रतिशत से अधिक लोगों का मानना है कि जब अर्थव्यवस्था धीमी हो, तब नौकरियां पुरुषों को ही मिलनी चाहिए। श्रम बाजार के पौरुषीकरण ने इस झूठ को स्थापित कर दिया है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी पुरुषों की भागीदारी से ही हो सकती है, जबकि विश्व बैंक समूह की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि कार्यबल में लैंगिक असमानता के कारण विश्व अर्थव्यवस्था को करीब 160 खरब डॉलर की क्षति उठानी पड़ी है। कार्यबल में महिलाओं की अस्वीकार्यता कई सदियों से है।
यही कारण है कि 18वीं सदी तक महिलाएं सिर्फ वस्त्र उद्योग से जुड़े व्यवसायों में ही संलग्न हो पाईं, जहां उन्हें कम वेतन और भयावह परिस्थितियों में काम करना पड़ता था। स्थिति तब बदली, जब प्रथम विश्वयुद्ध में सभी स्वस्थ पुरुष सेना में भर्ती हो गए। तब परिवहन, अस्पताल यहां तक कि हथियार फैक्टरियों में भी महिलाओं को शामिल किया गया। उस विश्वयुद्ध में साठ हजार रूसी महिलाएं बटालियन ऑफ डेथ का हिस्सा रही थीं। फिर भी वह पुरुषवादी सोच खत्म नहीं हुई कि महिलाओं में मारक क्षमता का अभाव होता है। 1918 में प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति का समय पास आते देख सोची-समझी नीति के तहत ‘द रेस्टोरेशन ऑफ प्री वार प्रैक्टिस ऐक्ट, 1919 की बहाली कर महिलाओं पर दबाव बनाया गया कि वे अपनी नौकरियां स्वत: ही छोड़ दें, ताकि युद्ध से लौटे सैनिक पुनः अपना काम ग्रहण कर सकें। दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद भी ऐसा ही हुआ। 1944 में यूएस वुमेन ब्यूरो के एक सर्वेक्षण में 84 फीसदी महिलाओं ने युद्ध के समय शुरू किए गए कार्य जारी रखने की इच्छा जताई थी, पर सामाजिक दबाव के आगे उन्हें झुकना पड़ा और 30 से 40 लाख महिलाओं को अपना रोजगार छोड़ना पड़ा।
अमेरिकी लेखिका बेट्टी फ्रीडम ने अपनी पुस्तक फेमिनिन मिस्टिक में लिखा कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद महिलाओं को विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती रही कि घर की चारदीवारी में ही उनके जीवन का सारा सुख है। नीति आयोग के 2017-20 के एजेंडे में बताया गया कि महिलाओं को कम मजदूरी दी जाती है और उन्हें कम उत्पादकता वाले रोजगार ही मिलते हैं, साथ ही उन्हें देख-रेख के गैर भुगतान वाले कार्य अधिक मिलते हैं। श्रम बाजार में महिलाओं का अवमूल्यन इस कारण होता है, क्योंकि उनके अनुभव, शिक्षा व कुशलता को कम आंका जाता है। बीते दशकों में यह मिथक स्थापित करने का प्रयास किए गए कि
महिलाएं स्वयं ही रोजगार नहीं चाहती, लेकिन यह सच नहीं है। वर्ष 2018 में नंदी फाउंडेशन के एक अध्ययन में कहा गया कि भारत की आठ करोड़ किशोर उम्र की लड़कियां करियर को लेकर ढेर सारी उम्मीदें रखती हैं, पर उनकी उम्मीदें पूरी हो पाएंगी, यह कहना मुश्किल है। यह विद्रूप नहीं, तो और क्या है कि विपदाओं और महामारियों के समय महिलाओं को श्रम बल से जोड़ने की तमाम कोशिशें की जाती है, पर स्थिति सामान्य होते ही उन्हें पीछे धकेलने के प्रयास किए जाते हैं।
सौजन्य - अमर उजाला।
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