अशोक के लाहिड़ी
कोविड-19 महामारी ने लोगों की जान और आजीविका ही नहीं छीनी है बल्कि केंद्र एवं राज्य सरकारों को मिलने वाले राजस्व में गिरावट भी आई है और उनके खर्चे भी बढ़ गए हैं। महामारी जारी रहते समय अधिक राजस्व भी नहीं जुटाया जा सकता है। लेकिन मैं आश्वस्त हूं कि महामारी से उबरकर जिंदगी जल्द ही फिर से गुलजार होगी। ऐसे वक्त में 2011-12 से लेकर 2017-18 के दौरान केंद्र एवं राज्यों के वित्त पर नजर डालना मौजूं होगा।
महामारी फैलने के पहले भी केंद्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर राजस्व नाकाफी ही था। मसलन वर्ष 2017 में भारत का सामान्य सरकारी कर राजस्व (केंद्र एवं राज्यों का समेकित कर राजस्व) सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात के तौर पर 17 फीसदी था जो जी-20 देशों में इंडोनेशिया को छोड़कर सबसे कम था। वहीं ब्राजील, रूस, भारत, चीन एवं दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) देशों में से यह अनुपात सबसे कम था।
इस बात पर लगभग आम राय है कि हमारी सरकार के लिए शिक्षा (6 फीसदी), स्वास्थ्य (2.5 फीसदी), ढांचागत विकास (7-8 फीसदी) और कानून व्यवस्था (5-7 फीसदी) पर अधिक खर्च करना जरूरी होता है। पहले से ही चले आ रहे सार्वजनिक ऋण पर 4-5 फीसदी की दर से देय ब्याज भुगतान की देनदारी और गरीबी उन्मूलन एवं सब्सिडी पर किए जाने वाले व्यय को भी जोड़ लें तो आंकड़ा 20 फीसदी से भी अधिक हो जाता है जो सामान्य सरकारी राजस्व के बराबर ही है। इस स्थिति में सामान्य सरकारी घाटा दो अंकों के करीब पहुंच जाता है। अगर आप राजकोषीय घाटे को सिर्फ माया ही नहीं मानते हैं तो फिर हम इन अहम मदों पर तभी खर्च कर सकते हैं जब हमारे पास पर्याप्त राजस्व हो।
राज्यों एवं केंद्र के बीच की इस समस्या पर थोड़ा विचार करते हैं। संविधान ने आयकर एवं आयात शुल्क जैसे कुछ अहम करों का जिम्मा केंद्र को सौंपकर सही ही किया है जबकि संपत्ति एवं शराब की बिक्री जैसे मसले राज्यों पर छोड़े गए हैं। वहीं व्यय के मोर्चे पर संविधान में रक्षा एवं विदेश मामले केंद्र के लिए निर्धारित किए गए हैं जबकि प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य एवं कानून-व्यवस्था को राज्यों पर छोड़ा गया है। ऐसे दायित्व निर्धारण के पीछे का तर्क स्वाभाविक तौर पर स्पष्ट है। जरा उस स्थिति की कल्पना करें कि अलग-अलग राज्यों में अर्जित आय पर आपको उन सभी राज्यों में आयकर रिटर्न भरना पड़े। या फिर दिल्ली में बैठी सरकार यह तय करने लगे कि झुमरी तलैया में कोई नया पुलिस थाना या प्राइमरी स्कूल कहां पर बनाया जाएगा?
हमारे संविधान निर्माताओं ने उस स्थिति की कल्पना कर ली थी कि संवैधानिक रूप से निर्धारित कर लगाने एवं उनके व्यय का अधिकार होने का नतीजा यह होगा कि राज्यों का अपना राजस्व अपने खर्चों से कम रह जाएगा और इस तरह कथित तौर पर 'ऊध्र्वाधर अंतराल' पैदा होगा। इस तरह संविधान निर्माताओं ने हरेक पांच साल पर एक वित्त आयोग के गठन का प्रावधान भी रखा था ताकि केंद्र को प्राप्त कर राजस्व का कुछ हिस्सा राज्यों के बीच आवंटित किया जा सके। इस क्रम में गठित 15वें वित्त आयोग ने वर्ष 2021-26 की अवधि के लिए दी गई अनुशंसाओं वाली अपनी रिपोर्ट हाल ही में सौंप दी है। इस रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए हम महामारी के बाद केंद्र एवं राज्यों की वित्तीय स्थिति का अंदाजा लगाते हैं।
हमारे राज्यों में ही कुल मिलाकर ऊध्र्वाधर अंतराल 2017-18 में 58 फीसदी रहा था जबकि आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के सदस्य देशों में यह औसत 40 फीसदी का था। इस असंतुलन की एक वजह इसकी संरचना ही है लेकिन एक कारण यह है कि अपने राजस्व अपर्याप्त हैं। राज्यों का अपना कर राजस्व 2011-12 के 6.4 फीसदी से घटकर वर्ष 2017-18 में 6 फीसदी पर आ गया। इस कालावधि में उनके अपने गैर-कर राजस्व में गिरावट 1.1 फीसदी से कम होकर 1 फीसदी रही। खुद के राजस्व में ऐसी गिरावट होने के साथ उनका राजस्व व्यय एवं पूंजी व्यय भी क्रमश: 12.3 फीसदी से बढ़कर 13.5 फीसदी और 2.4 फीसदी से बढ़कर 2.5 फीसदी हो गया। इस तरह इन छह वर्षों में ऊध्र्वाधर अंतराल बढ़ता गया। सवाल यह नहीं है कि राज्यों के पास कर राजस्व का ऊध्र्वाधर अंतराल होना चाहिए या नहीं? इसके बजाय सवाल यह है कि यह फासला कितना होना चाहिए? महामारी खत्म होने पर राज्यों को शिक्षा, स्वास्थ्य एवं ढांचागत क्षेत्रों पर अधिक खर्च करने के लिए अपने दम पर अधिक राजस्व जुटाने होंगे।
लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि महामारी से पहले वर्ष 2011-12 और 2017-18 के दौरान भी केंद्र की वित्तीय स्थिति ऐसे ही भारी दबाव में थी। वर्ष 2011-12 में केंद्र सरकार का राजस्व व्यय 13.1 फीसदी और पूंजीगत व्यय 1.8 फीसदी पर होने से राज्यों को कोई कर राजस्व दिए बगैर भी इसका कुल व्यय इसके सकल राजस्व से 3.3 फीसदी अधिक था। वर्ष 2017-18 में योजना आयोग और राज्यों को योजनागत अनुदान की व्यवस्था खत्म हो जाने से हालात में थोड़ा सुधार दिखा था। उस साल वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप राज्यों को उनका हिस्सा दिए जाने के पहले केंद्र का सकल कर राजस्व बढ़कर 11.2 फीसदी हो गया था जबकि 2011-12 में यह 10.2 फीसदी था। इस दौरान गैर-कर राजस्व 1.4 फीसदी से घटकर 1.1 फीसदी रह जाने से 2017-18 में केंद्र का सकल कर राजस्व 2011-12 की तुलना में 0.7 फीसदी ही अधिक रहा। केंद्र के राजस्व एवं पूंजीगत व्यय में क्रमश: 11 फीसदी और 1.5 फीसदी की गिरावट आई। लेकिन 2017-18 में खर्चों में 2.4 फीसदी की कमी और 0.7 फीसदी की राजस्व वृद्धि होने के बावजूद केंद्र सरकार राज्यों को कुछ भी राजस्व नहीं देने पर भी 0.2 फीसदी के घाटे में थी। दरअसल व्यय में कमी करने की भी कुछ अपनी सीमाएं हैं और राजस्व बढ़ाना ही अकेला रास्ता है।
एक बार कोविड महामारी से जुड़ी चिंताएं एवं बाधाएं खत्म हो जाती हैं तो केंद्र एवं राज्यों दोनों की ही सरकारों को राजस्व संकट से निपटने के लिए मिल-जुलकर प्रयास करने होंगे। उम्मीद करते हैं कि ऐसा ही होगा और भविष्य में बनने वाले वित्त आयोगों को केंद्र एवं राज्यों के बीच बड़ा सामान्य सरकारी घाटा ही बांटने के लिए मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी।
(लेखक अर्थशास्त्री हैं और 15वें वित्त आयोग के सदस्य रहे हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टेंडर्ड।
0 comments:
Post a Comment