भगत सिंह के सपनों का भारत (प्रभात खबर)

By प्रो एस इरफान हबीब 

 

 

भगत सिंह महज एक शहीद नहीं हैं. बेशक उनकी शहादत हमारे लिए बहुत मायने रखती है, लेकिन भगत सिंह की शहादत भर का सम्मान करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि नहीं होगी, अगर हम उनके विचारों का अनुसरण न करें. भगत सिंह ने देश के लिए एक क्रांतिकारी विरासत छोड़ी है. हर साल 23 मार्च को उनका शहादत दिवस भर मना लेने की बजाय, वह किस तरह का भारत चाहते थे, नौजवानों से उनकी क्या उम्मीदें थीं, इस दिशा में मुकम्मल पहल होनी चाहिए.



भगत सिंह ने अपने विचारों को अपने लेखों में बखूबी व्यक्त किया है. मौजूदा दौर में युवाओं समेत हर किसी को उनके लिखे को पढ़ना और विचारों को आत्मसात करना चाहिए. सांप्रदायिकता, छुआछूत और विश्व बंधुत्व पर उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं.



सांप्रदायिकता के खिलाफ उन्होंने ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण लेख लिखा और सवाल उठाये कि हमारे देश में सांप्रदायिकता क्यों फैली है! फिरकापरस्ती व सांप्रदायिकता के मामले में 1920 का दशक देश के लिए बहुत खराब था. चौरी चौरा कांड के बाद हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक फिरकों के बीच फैली हिंसा से खिन्न होकर भगत सिंह ने अपने लेख में लिखा कि देश के ज्यादातर नेता सांप्रदायिक या गैरजिम्मेदार हो गये हैं.


वे जानते ही नहीं कि देश को कैसे रखा जाये. इसके बाद उन्होंने प्रेस को दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराया. भगत सिंह ने लिखा कि प्रेस ने बहुत मायूस किया. प्रेस लोगों को सही रास्ता दिखाने की बजाय भड़काऊ शीर्षक लगाती है. लेख का अंत वह इस निष्कर्ष के साथ करते हैं कि सांप्रदायिक दंगों का मूल कारण आर्थिक तंगी है. हिंसा का कोई धर्म नहीं होता. वह हिंदू में भी हो सकती है और मुस्लिम में भी. भगत सिंह का यह लेख आज के लिए एक सबक है.


छुआछूत पर भगत सिंह ने लिखा था-'हम किस तरह के समाज में रहते हैं, जहां 20 करोड़ की आबादी में छह करोड़ लोगों को ऐसा बनाकर छोड़ दिया गया है, जिनके छूने भर से बाकी लोगों का धर्म भ्रष्ट हो जाता है.' छुआछूत पर उनका यह लेख आज भी प्रासंगिक है. इस लेख में उन्होंने उस समय के राजनेताओं पर भी सवाल खड़े किये हैं. उन्होंने लिखा कि हमारे यहां कई बड़े नेता ऐसे हैं, जो अपनी सभाओं में अछूत लोगों काे मंच पर बुलाते हैं, उनको गले लगाते हैं, ये दिखाने के लिए कि हम ब्राह्मण होने के बावजूद बराबरी का व्यवहार कर रहे हैं. लेकिन, ये नेता घर जाकर कपड़ों समेत नहाते हैं.


आज कई राजनेताओं को यह कहते सुना जा सकता है कि विश्वविद्यालयों में युवाओं का काम शिक्षा ग्रहण करना है, राजनीति करना नहीं. भगत सिंह का इस पर एक लेख है-'छात्र और राजनीति.' इसमें वह लिखते हैं-'छात्रों की ये जिम्मेदारी है कि देश में जो कुछ गलत हो रहा है, उसके खिलाफ अवाज उठायें. अपने चारों तरफ होनेेवाले घटनाक्रम के प्रति सजग रहें.' इस लेख में भगत सिंह इटली, यूरोप, रूस समेत दुनिया भर में हुए छात्र आंदोलनों का उदाहरण देते हैं.


इस लेख को लिखते समय भगत सिंह और उनके सभी साथी क्रांतिकारी खुद युवा थे. यह कहा जाता है कि उस समय ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ाई थी, इसलिए युवा आवाज उठा रहे थे. अब तो देश की राष्ट्रवादी सरकार है, तो भगत सिंह का विचार लागू नहीं होता. लेकिन भगत सिंह ने एक बार नहीं, कई बार अपने लेख, अदालत के बयान, नौजवान भारत सभा के प्लेटफॉर्म, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के मेनिफेस्टो में दोहराया है कि हमारी लड़ाई सिर्फ अंग्रेजों से नहीं है.


यह ऊंच-नीच के खिलाफ, गरीबों-मजदूरों के हक की लड़ाई है और यह लड़ाई हम तब तक लड़ेंगे, जब तक इन लोगों को इनका हक नहीं मिल जाता, फिर चाहे ब्रिटिश रहें या उनके बदले हमारे काले शासक आ जायें. उन्होंने अपने एक मेनिफेस्टो में लिखा था-'हम तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक कि 98 फीसदी लोगों को शासन में भागीदारी प्राप्त न हो जाये. केवल दो फीसदी लोग देश पर शासन करते हैं, जो अमीर हैं. बाकी के 98 फीसदी को शासन में भागीदारी दिलाना हमारा फर्ज है. शोषित समाज जब तक रहेगा, तब तक हमारी लड़ाई चलती रहेगी.


आजकल नारों की राजनीति बहुत हो रही है. भगत सिंह ने लाहौर में 1926 में जब नौजवान भारत सभा बनायी थी, उसके घोषणापत्र और बैठकों में उन्होंने कहा कि राजनीतिक सभाओं और रैलियों में इस्तेमाल होनेवाले धार्मिक नारे तीनों धर्मों के लोगों को बांट रहे हैं. यह एहसास करा रहे हैं कि आप भारतीय नहीं, हिंदू, मुसलमान, सिख हैं. इसलिए हम धार्मिक नारों की बजाय तीन धर्मनिरपेक्ष नारों- इंकलाब जिंदाबाद, भारत के मजदूरों एक हो और हिंदुस्तान जिंदाबाद का इस्तेमाल करेंगे.


यह कदम भगत सिंह ने तब उठाया, जब देश में सांप्रदायिक राजनीति चल रही थी और आर्य समाज का शुद्धिकरण चल रहा था. इस सबके बीच भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा का गठन किया, जो एक अलग किस्म के भारत की कल्पना कर रही थी. महज 23 साल की आयु में भगत सिंह दुनिया से चले गये, जिसमें सक्रिय जीवन सिर्फ छह से सात साल का रहा. इस छोटी-सी समयावधि में उन्होंने इतने बड़े और अहम विचारों की विरासत देश को सौंपी है. आज उनकी शहादत भर को याद करने की बजाय, उनके विचारों काे जिंदा रखने की जरूरत है.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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