मिहिर पंड्या
यह हफ्ता राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा का रहा और हमेशा की तरह तमाम भारतीय भाषाओं में बनी उल्लेखनीय फिल्मों पर चर्चा करने की बजाय हमारा मीडिया बॉलीवुड को मिले चंद अभिनय पुरस्कारों और उनके पीछे की राजनीति पर चर्चा करने में उलझा रहा। सही है कि प्रत्यक्ष राजनीति से प्रेरित पुरस्कार सम्पूर्ण प्रक्रिया की गरिमा गिराते हैं और यह पतन बीते कुछ सालों में बहुत जाहिर होता जा रहा है। लेकिन इस सबके बीच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों का एक और महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जो सुर्खियों से हमेशा ओझल ही रह जाता है। यह हिस्सा है गैर-फीचर फिल्म श्रेणी के पुरस्कार, जिसमें कई कमाल के वृत्तचित्रों, प्रयोगात्मक फिल्मों और लघु, एनिमेशन फिल्मों को पुरस्कृत किया जाता रहा है।
हमने अभी तक गैर-फीचर फिल्मों को लोकप्रिय वृत्त में आसानी से स्वीकार नहीं किया है, पर यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां विश्व सिनेमा में कमाल का रोमांचक काम हो रहा है। हमें अपनी रुचियों के दरवाजे कुछ और खोलने होंगे। उदाहरण के लिए इस विधा में विश्व सिनेमा के सबसे चमकीले नाम ब्रिटिश फिल्म निर्देशक आसिफ कपाडिय़ा की दस्तावेजी फिल्में देखें। उनके परिचय के लिए आपको इतना याद दिला दूं कि वे आसिफ कपाडिय़ा ही थे जिन्होंने नब्बे के दशक में लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में हीरो बनने के लिए 'अनफिट' बताकर ठुकराया गए अविस्मरणीय अभिनेता इरफान खान को 2001 में अपनी फिल्म 'दि वॉरियर' में लींडिग हीरो का ब्रेक दिया था और उन्हें विश्व स्तर पर पहचान दिलाई थी। उनकी एफ-1 मोटर रेसिंग के चैम्पियन खिलाड़ी एयर्टन सेन्ना पर बनायी 'सेन्ना' और पॉप-सिंगर एमी वाइनहाउस पर बनायी 'एमी' के बाद अर्जेंटीना के मिथक बन चुके फुटबॉल खिलाड़ी डिएगो माराडोना पर बनायी हालिया डॉक्यूमेंट्री कुछ दिनों पहले नेटफ्लिक्स पर आई है। कपाडिय़ा अविश्वसनीय सफलता पाए और बेइंतहा चाहे गए, मगर वे त्रासदी से भरी जिंदगियों के वारिस इंसानों की कथा कहने में माहिर निर्देशक हैं। सिनेमा के इस नॉन-फिक्शन फॉर्म की अपरिमित संभावनाओं को नापने के लिए 'डिएगो माराडोना' देखिए।
इस बार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ गैर-फीचर फिल्म का प्रतिष्ठित स्वर्ण कमल हेमंत गाबा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री 'एन इंजीनियर्ड ड्रीम' को मिला है। हेमंत तकरीबन मेरी ही उमर के युवा हैं और इससे पहले 'शटलकॉक बॉयज' जैसी छोटे बजट की, पर बड़ी महत्त्वाकांक्षाओं से भरी फीचर फिल्म बना चुके हैं। मुझे उनकी पहली फिल्म की खुरदुरी सच्चाई बहुत भायी थी। 'एन इंजीनियर्ड ड्रीम' कोटा शहर की कोचिंग इंडस्ट्री में पढ़ रहे चार तरुण छात्रों की कहानी कहती है। उनका जीवन, उनके तनाव, उनकी महत्त्वाकाक्षाएं और उनके डर को इसमें दर्शाया गया है। इसे संभवत: हम कुछ साल पहले एक और युवा निर्देशक अभय कुमार द्वारा एलीट मेडिकल कैम्पस के भीतर रहकर बनाई गई शानदार दस्तावेजी फिल्म 'प्लासिबो' की परंपरा में रखकर देख सकते हैं। उम्मीद यही करनी चाहिए कि राष्ट्रीय पुरस्कार का तमगा ऐसी फिल्मों को ज्यादा बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचाएगा।
(लेखक सिनेमा-साहित्य पर लेखन करते हैं व दिल्ली विवि में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
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