हालांकि न्यूजीलैंड दुनिया का पहला स्वशासित देश था, जिसमें सभी महिलाओं को मतदान करने का अधिकार 1893 में दिया गया था लेकिन यह अधिकार संसदीय चुनाव में खड़े होने के लिए नहीं था। इसके बाद दक्षिण ऑस्ट्रेलिया की कॉलोनी ने 1894 में महिलाओं को मतदान करने और चुनाव के लिए खड़े होने की अनुमति दी।
अगर लैंगिक समानता के लिए लडऩे के लिए ‘महिला दिवस’ मनाने का विचार कोपेनहेगन में 1913 में महिला समाजवादी सम्मेलन से आया, जहां 17 देशों की 100 महिलाएं इस मुद्दे को उठाने के लिए एक साथ आईं तो 8 मार्च, 1917 को रूसी महिलाओं को और 8 मार्च, 1918 को जर्मन महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिलने के बाद मार्च की 8 तारीख को ही महिला दिवस मनाने के विचार ने जन्म लिया।
अचरज की बात नहीं कि जहां महिलाओं को समान मतदान का अधिकार देने में अमरीका को 144 वर्ष लग गए और ब्रिटेन में 1920 में वोट का अधिकार जीतने के लिए लगभग एक सदी का समय लिया जबकि भारतीय महिलाओं को अपने देश की स्वतंत्रता केे पहले वर्ष में ही वोट डालनेे का अधिकार मिल गया। वहीं सऊदी अरब इस लम्बी सूची में आखिरी स्थान पर है जहां महिलाओं को 2015 में यह अधिकार मिला।
परंतु जितनी भी तरक्की पिछले दशकों में हुई, वह कोरोना के चलते लॉकडाऊन के कारण बिखर गई। इसी के दृष्टिगत संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने 2021 के महिला दिवस के लिए अपने संदेश में कहा : ‘‘कोविड महामारी ने लिंग समानता की दिशा में दशकों की प्रगति को मिटा दिया है। नौकरियों के बड़े नुक्सान से, अवैतनिक देखभाल के बोझ के विस्फोट से, बाधित स्कूली शिक्षा से लेकर घरेलू ङ्क्षहसा और शोषण के बढ़ते संकट तक महिलाओं के जीवन में अत्यधिक गिरावट आई है और उनके अधिकारों का हनन हुआ है और इस नुक्सान की भरपाई कई सालों तक नहीं हो पाएगी।’’
आज के दिन जब भारत में सुंदर फूल और खूबसूरत संदेश महिलाओं को भेजे जाएंगे तो ऐसे में यह विचार करना आवश्यक है कि भारत में महिलाओं के अधिकारों की अब क्या स्थिति है! जैसा कि कोविड के बाद के वर्ष की अर्थव्यवस्था से स्पष्ट है, जब भी बेरोजगारी बढ़ती है, महिलाओं के लिए रोजगार और कम हो जाते हैं। लॉकडाऊन के दौरान घरेलू ङ्क्षहसा में कई गुणा वृद्धि हुई, जो अभी तक पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। न केवल समाज में, बल्कि राज्य तंत्र में भी महिलाओं के विरुद्ध एक ङ्क्षहसक, प्रतिगामी रवैया सामने आया है।
उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में एक ऐसे व्यक्ति की हत्या, जिसकी बेटी का आरोपियों द्वारा कथित रूप से यौन उत्पीडऩ किया गया था, ने राज्य में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों पर फिर से ध्यान केंद्रित किया है। इससे पहले भी हाथरस में 20 वर्षीय दलित महिला के साथ कथित तौर पर उच्च जाति के चार पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया था। भले ही उत्तर प्रदेश में महिलाओं के विरुद्ध अपराध की उच्च दर रही है, अगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर विश्वास किया जाए तो यह हाल के हमलों के घिनौनेपन ने सभी को चौंका दिया है। हाथरस मामले में, पीड़िता की जीभ काट दी गई और उसकी रीढ़ की हड्डी तथा गर्दन को गंभीर चोट पहुंचाई गई।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) की ‘भारत में अपराध’ 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में महिलाओं के विरुद्ध सबसे अधिक अपराध (59,853) दर्ज किए गए, जो देश भर में इस तरह के मामलों का 14.7 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश में प्रोटैक्शन आफ चिल्ड्रन फ्राम सैक्सुअल अफैंस (पी.ओ.सी.एस.ओ.) अधिनियम के तहत बालिकाओं के विरुद्ध अपराधों की सबसे अधिक संख्या थी और बलात्कार के मामले में यह दूसरे स्थान पर था।
ऐसे में यह सोचना भी गलत है कि उत्पीडऩ केवल बाहर वालों ने किया है। पिछले दिनों दो ऐसे केस आए, जहां पिता ने अपनी बच्ची की हत्या कर दी। जहां एक मामले में बेटी के किसी को मिलने पर पिता ने उसका सिर धड़ से अलग कर पुलिस थाने ले जाने की क्रूरता दिखाई, वहीं दूसरे मामले में बच्ची की हत्या पिता ने इसलिए की क्योंकि वह किसी अन्य जाति के लड़के से विवाह करना चाहती थी।
जब कई राज्य सरकारें लव जेहाद जैसे कानून बना रही हैं तो इसमें हैरानी क्या! आश्चर्य तो इस पर भी नहीं कि पुलिस भी ऐसे जघन्य अपराधों में कुछ खास नहीं करती तो फिर महिलाएं न्याय की उम्मीद कहां से रखें! कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने तीन जजों की बैंच का नेतृत्व करते हुए एक नाबालिग स्कूली लड़की से बलात्कार के आरोप में जमानत के केस में आरोपी व्यक्ति से पूछा कि क्या वह उससे शादी करेगा? उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप उससे शादी करना चाहते हैं (तो) हम आपकी मदद कर सकते हैं। यदि नहीं तो आप अपनी नौकरी खो देंगे और जेल जाएंगे।’’ यदि ऐसे फैसले शीर्ष अदालत देने लगे तो फिर हम महिला दिवस पर कैसे अपनी शुभकामनाएं महिलाओं को दें?
ऐसा नहीं है कि केवल युवा और असहाय लड़कियों को हिंसा तथा भयावह अपराधों का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि एक चौंकाने वाली घटना में राष्ट्रीय राजधानी में एक 25 वर्षीय महिला कांस्टेबल के साथ चलती बस में एक व्यक्ति ने उस समय छेड़छाड़ और उस पर हमला किया जब वह द्वारका में अपनी ड्यूटी पर जा रही थी। लेकिन महिलाओं के प्रति एकजुटता के प्रदर्शन के मामले में एकमात्र मामला जो कुछ आशा देता है, वह तमिलनाडु की महिला आई.पी.एस. अधिकारी का है जिसके समर्थन में कई आई.पी.एस. अधिकारी आए हैं जिन्होंने चेन्नई में पुलिस मुख्यालय में पुलिस महानिदेशक से भेंट करके डी.जी.पी. के विरुद्ध कार्रवाई करने की मांग की। अत: शायद यह दिन केवल महिलाओं को मजबूत रहने का उपदेश देने के लिए नहीं बल्कि समाज को झिझोडऩे का भी है।
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