मानव कुमार एवं इंदीवर जोन्नालागाडा
मई, 2020 में कोविड-19 के बीच और प्रवासी मजदूरों के संकट की पृष्ठभूमि में आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय ने शहरी प्रवासी मजदूरों के लिए अफोर्डेबल रेंटेबल हाउसिंग कॉम्पलेक्सेस (एआरएचसी) योजना की घोषणा की। अर्बन पीएमएवाई-यू नाम से यह प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पांचवीं पहल, और किराया योजना के तहत पहली शुरुआत थी।
एआरएचसी योजना के जरिये सार्वजनिक आवास योजना में पहली बार बदलाव किया गया, जो स्वामित्व वाले भवन के बजाय किराये वाले भवन पर फोकस करता था। शहरी प्रवासियों के आवास की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इस योजना में किसी भी क्षेत्र में उनके लिए किराये की किफायती आवास सुविधा पर ध्यान केंद्रित किया गया। इस योजना के संचालन संबंधी दिशा-निर्देशों के आधार पर हम इसे लागू करने से संबंधित चुनौतियों का अध्ययन करने के बाद इस योजना के विभिन्न पहलुओं की संभाव्यता और प्रभावी होने के बारे में टिप्पणी करते हुए यह पाते हैं कि यह योजना गरीब प्रवासियों की आवासन मांग की अपेक्षा पर पूरी तरह खरी नहीं उतरती।
प्रवासियों की आवास जरूरतें : अधिक रोजगार वाले शहरों में प्रवासियों की आवास जरूरतें अधिक होती हैं, और वे अमूमन अनौपचारिक इलाकों में तुलनात्मक रूप से सस्ते और बने-बनाए घरों में रहने को वरीयता देते हैं। प्रवासी मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जहां रोजगार सुरक्षा की गारंटी नहीं होती, उन्हें सामाजिक सुरक्षा का लाभ नहीं मिलता, उनकी आय भी कम और अनियमित होती है, तथा एक जगह से दूसरी जगह जाने की प्रवृत्ति भी उनमें अधिक होती है। शहरी प्रवासियों के लिए किराये की किसी भी आवास योजना में इन तमाम तथ्यों का समुचित ध्यान रखा जाना जरूरी है।
जाहिर है, किराये का यह आवास सिर्फ रहने का स्थान भर नहीं हो सकता, बल्कि इसे ऐसा होना चाहिए, जिससे कि वक्त-जरूरत वहां रहकर काम भी किया जा सके, जहां शहरों में रहने के लिए जरूरी संसाधन जुटाकर रखे जा सकें, तथा जहां प्रवासियों के परिजन भी रह सकें-तभी तो यह वास्तविक रूप से घर बन सकेगा। प्रवासी मजदूर शहरों में किराये के जिन घरों में रहते आए हैं, वहां अमूमन किरायेदारों की सुविधाओं के हिसाब से छोटे-छोटे घर बने होते हैं, तथा दूसरी सहूलियतें भी उन्हें मिलती हैं। लेकिन ऐसे घरों में किरायेदारों की सुरक्षा का मामला हमेशा ही अनिश्चित होता है तथा मकान मालिकों को निरंकुश बनाता है।
एआरएचसी जैसी किराये की सार्वजनिक आवास योजना इस संदर्भ में सकारात्मक बदलाव ला सकती है, पर ऐसा तभी संभव हो सकता है, जब इसे शहरी प्रवासियों की वास्तविकताओं के आधार पर तैयार किया जाए। एआरएचसी योजना में नीति निर्माताओं की मुश्किल यह है कि समस्या के समाधान के लिए समय और संसाधन, दोनों सीमित हैं। इस योजना की सफलता के लिए लाभार्थियों के साथ संवाद और विमर्श आवश्यक है। किराये वाली पिछली आवास योजनाएं : शहरी प्रवासियों के लिए किराये की सार्वजनिक आवास योजना एआरएचसी से पहले भी लागू की गई थी। सबसे पहले 1920 में बांबे डेवलपमेंट डिपार्टमेंट (बीडीडी) ने प्रवासी मिल मजदूरों के लिए ऐसी योजना शुरू की थी। वर्ष 1921 में राज्य सरकार ने किरायेदारों के लिए एक कमरे के आवास का निर्माण शुरू किया था, जो बीडीडी चॉल के रूप में जाने गए।
पहली पंचवर्षीय योजना में बीडीडी द्वारा ऐसे 50,000 चॉल बनाने की योजना थी, लेकिन 15,000 चॉल बनाने के बाद यह योजना रोकनी पड़ी, क्योंकि न केवल इनकी लागत अधिक आ रही थी, बल्कि उनमें रहने वालों से समय पर किराया भी नहीं आ रहा था। उसके बाद 2008 में महाराष्ट्र सरकार ने शहरी प्रवासियों के लिए मुंबई मेट्रोपॉलिटन रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी-रेंटल हाउसिंग स्कीम (एमएमआरडीए-आरएचएस) नाम से फिर किराये की आवास योजना शुरू की। इस योजना में पीपीपी माध्यम से पांच साल में एक कमरे वाले पांच लाख घर बनाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य था। पर वह योजना भी परवान नहीं चढ़ पाई, तो उसकी वजहें थीं, जैसे-कमरों का छोटा आकार, निजी आवासन कंपनियों की इसमें न के बराबर दिलचस्पी तथा सरकारी एजेंसियों द्वारा इतने व्यापक पैमाने पर आवासन इकाइयों की देख-रेख कर पाने की असमर्थता।
एआरएचसी योजना की चुनौतियां : किराये की पिछली आवास योजनाओं का गहराई से अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि केंद्र सरकार की एआरएचसी योजना के क्रियान्वयन में कई चुनौतियां हैं। पहली चुनौती यह है कि इस योजना का क्रियान्वयन सरकार की पहल पर नहीं, बल्कि बाजार के दूसरे खिलाड़ियों पर निर्भर है। इस योजना में पुरानी सरकारी इमारतों की मरम्मत कर रहने योग्य बनाए जाएंगे, साथ ही, नए घर बनाए जाएंगे। लेकिन 2008 की महाराष्ट्र सरकार वाली किराये की आवास योजना की तरह इस योजना के प्रति भी शायद निजी आवासन कंपनियों की दिलचस्पी न हो। फिर इस योजना में कहीं नहीं बताया गया है कि इसके लाभार्थियों का मानदंड क्या होगा।
ऐसे में, सबसे गरीब शहरी प्रवासी शायद इसका लाभ न उठा पाएं। तीसरी बात यह कि योजना में लाभार्थियों को सिर्फ रहने के लिए कमरे दिए जाएंगे, जबकि शहरी प्रवासी घरों से भी रोजगार संबंधित गतिविधियों से जुड़े होते हैं। चौथी चुनौती यह कि इन मकानों में प्रवासियों के परिजनों के रहने के बारे में योजना में सोचा नहीं गया है। इस योजना में किरायेदारों के मकान मालिक बनने की भी कोई संभावना नहीं है। इस योजना के क्रियान्वयन में रिएल एस्टेट डेवलपर और निजी ठेकेदारों आदि पर ही ज्यादा जोर है। बेशक शहरी प्रवासी इस योजना का लाभ उठाएंगे, लेकिन किराये की आवास व्यवस्था की पिछली विफलताओं को देखते हुए एआरएचसी योजना में समयोचित बदलाव लाने की आवश्यकता है।
-मानव कुमार आईआईटी, बांबे स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज में पीएच.डी. छात्र, जबकि इंदीवर जोन्नालागाडा यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिलवेनिया के एंथ्रोपलॉजी ऐंड साउथ एशिया स्टडीज में पीएच.डी छात्र हैं।
सौजन्य - अमर उजाला।
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