एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकार
साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा एक मजबूत नेतृत्व, हिंदुत्व के एजेंडे और सशक्त चुनावी मशीनरी के सहारे दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई। केंद्र में बेशक दोनों ही बार इसने आसानी से सरकार बना ली, लेकिन राज्य के चुनावों में इसका ट्रैक रिकॉर्ड थोड़ा अलग रहा है। गुजरात में यह बमुश्किल अपनी सरकार बचाने में कामयाब रही, तो वहीं उत्तर प्रदेश में इसने विरोधियों को सूपड़ा साफ कर दिया और असम व पूर्वोत्तर में भी अपनी जमीन काफी मजबूत की। कुछ विद्रूपताओं और कांग्रेस के बागियों की मदद से इसने मध्य प्रदेश एवं कर्नाटक पर फिर से कब्जा किया और अरुणाचल प्रदेश में पहली बार सरकार बनाने में सफलता हासिल की। महाराष्ट्र, जिसे भाजपा-शासित राज्य होना चाहिए था, वहां पर यह सत्ता से बाहर हो गई, क्योंकि चुनाव-पूर्व की सहयोगी शिवसेना ने उसे झटका देते हुए अप्रत्याशित रूप से एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिला लिया। इसी तरह, राजस्थान में बहुत मामूली अंतर से कांग्रेस को बढ़त मिली और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जैसे-तैसे सत्ता-संतुलन बनाने में सफल रहे। यही वजह है कि भाजपा ‘कांगे्रस मुक्त भारत’ का सपना उत्तर, पश्चिम और पूर्वोत्तर में जल्द ही साकार होते देख सकी, जबकि पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, ओडिशा व तमिलनाडु, जो केरल तट से होते हुए पश्चिमी छोर तक फैला हुआ है, जैसे सूबों में इसका अनुभव खासा अलग रहा। इन राज्यों में कांग्रेस के धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जाने से भाजपा खुद के लिए मौके ढूंढ़ती रही है, लेकिन क्षेत्रीय ताकतें उसकी राह रोक देती हैं। मौजूदा विधानसभा चुनावों में भाजपा जहां पश्चिम बंगाल में इन मुश्किलों से पार पाकर सरकार बनाने की हरसंभव कोशिश कर रही है, तो वहीं तमिलनाडु में अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए जी-जान से जुटी है। तमिलनाडु में वह अन्नाद्रमुक और पुडुचेरी में रंगासामी कांग्रेस की मदद से सत्ता में आना चाहेगी, तो वहीं केरल में 2026 में सरकार बनाने की योजना के साथ वह आगे बढ़ सकती है।
मगर सवाल यह है कि इन राज्यों में भाजपा कैसे सत्ता में आएगी, जहां के सामाजिक-राजनीतिक समीकरण देश के उत्तर व पश्चिमी हिस्सों से बिल्कुल अलग हैं। भगवा पार्टी यह बखूबी समझ रही होगी कि हिंदुत्व का उसका कार्ड इन हिस्सों में शायद ही काम कर सकता है। इसी कारण उसने इन सूबों में अपनी योजना को नया रूप दिया है और यह तमिलनाडु में साफ-साफ जाहिर भी हो रहा है। जैसे, भाजपा यहां समझ चुकी है कि बेशक देश भर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता शीर्ष पर है, लेकिन तमिलनाडु इस मामले में अपवाद है, इसीलिए उसने उम्मीदवारों को अपने तईं रणनीति बनाने को कहा है। नतीजतन, कुछ प्रत्याशी मोदी के बजाय पोस्टरों पर स्थानीय क्षत्रप एमजीआर और जयललिता की तस्वीरों का प्रमुखता से इस्तेमाल कर रहे हैं। भाजपा भले ही हिंदू कार्ड को सबसे ऊपर रखने में कोताही नहीं बरतती, लेकिन स्थानीय संवेदनशील मसलों पर सावधानी से कदम बढ़ा रही है। मिसाल के तौर पर, केरल में ईसाई समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए ईसाई बहुल क्षेत्रों में चुनावी समीकरण साधने या मुस्लिम बहुल इलाकों में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने में भी उसे ऐतराज नहीं है। लेकिन सबसे खास बात है, भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग, जो वह तमिलनाडु के दक्षिणी हिस्से में करने के प्रयास कर रही है। यह ठीक उसी तरह की कोशिश है, जैसे उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में की गई थी। तमिलनाडु में लगभग 18 फीसदी दलित और दो प्रतिशत आदिवासी आबादी है। भाजपा उत्तर में यादव और जाट जातियों पर किए गए अपने प्रयोगों की तरह इन्हें भी एक साथ लुभाकर तमिलनाडु पर काबिज होना चाहती है। दलितों की संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु करीब-करीब समान धरातल पर हैं। उत्तर प्रदेश में दलितों में समरूप नहीं है और यहां अनुसूचित जाति में वर्गीकृत जाटव, अहिरवार जैसी 66 जातियां हैं। तमिलनाडु में ऐसी 71 जातियां तीन बड़े दलित समुदायों- पल्लार, पारयार और अरुंधति में सूचीबद्ध हैं। करीब एक पखवाड़े पहले केंद्र ने उन सात जातियों का एक समूह देवेंद्र कुला वेल्लार बनाने का फैसला लिया है, जो फिलहाल पल्लार का हिस्सा हैं, और लंबे समय से यह मांग कर रही थीं। इनकी दूसरी प्रमुख मांग, खुद को अनुसूचित जाति से बाहर निकालना और अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल करना है। इस पर अब भी विचार जारी है। फिर भी, यह कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ और भगवा परिवार के अन्य सहयोगी दलों की मदद से भाजपा समाज के दमित वर्गों के बीच चुपचाप काम कर रही है, ताकि उनकी पहचान फिर से बन सके और उनके स्थानीय देवी-देवताओं को समाज में जगह मिल सके। यह हिंदुत्व के आख्यान के साथ फिट भी बैठता है। यह इस सोच पर आधारित है कि जाति की जंजीर टूट जानी चाहिए और सभी समुदाय हिंदुत्व की विशाल छतरी के नीचे एकजुट हो जाएं। हालांकि, तमिलनाडु के दलित दलों ने इस तरह के कदमों का मजाक उड़ाते हुए कहा कि यह केवल एक चाल है और इसका मकसद दलितों को ऐसे समूह में बांट देना है, जो वोट के एक मजबूत ब्लॉक बन सकें। उनका आरोप है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में यह प्रयोग कर चुकी है, जिससे मायावती की बहुजन समाज पार्टी को अच्छा-खासा नुकसान पहुंचा था। हालांकि, तमिलनाडु में सबसे बड़ा सवाल यही है कि देवेंद्र कुला वेल्लार की जातियां अनुसूचित जाति से बाहर निकलने के बावजूद आरक्षण का लाभ लेना चाहेंगी, इसीलिए उनको भला कहां समायोजित किया जाएगा? बहरहाल, उत्तर में अन्नाद्रमुक ने पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) के साथ गठबंधन किया है, जो एक जाति आधारित पार्टी है। अन्नाद्रमुक जहां प्रमुख पिछड़ी जातियों की नुमाइंदगी करता है, तो पीएमके पार्टी मोस्ट बैकवार्ड क्लासेस (एमबीसी) की। इस गठबंधन का आधार मुख्यमंत्री ई पलानीसामी द्वारा अंतिम क्षणों में की गई घोषणा है कि वह 10.5 फीसदी आंतरिक आरक्षण देंगे। राज्य में शिक्षा व रोजगार में जितना आरक्षण है, उसमें 20 फीसदी एमबीसी को हासिल है। ऐसे में, अगले सप्ताह होने वाले चुनावों के नतीजों से ही इन रणनीतियों की सफलता का पता चलेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दु्स्तान।
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