भुलाए न भूलेगी वह भयावहता ( हिन्दुस्तान)

सी एस वर्मा, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी

अगले चंद दिनों में कोरोना महामारी के मद्देनजर देश भर में लगाए गए लॉकडाउन को एक साल पूरा होने जा रहा है। इसके संताप से हुए खट्टे-मीठे अनुभव अभी तरोताजा हैं। यह व्यापक जनहानि बचाने के उद्देश्य से उठाया गया एक सरकारी अस्त्र था। आमजन को हुई तमाम दुश्वारियों के बावजूद यह काफी हद तक सफल भी रहा। भय और भूख मानव स्वभाव के लक्षण हैं। ये दोनों ही ऊर्जा व नए-नए आविष्कार करने हेतु प्रेरित करते रहे हैं। लॉकडाउन एक त्रासदी टालने के लिए लागू हुआ, लेकिन इसने अनगिनत कठिनाइयां आमजन के लिए खड़ी कर दी थीं। हालांकि, यह सब जगह कड़ाई से लागू किया भी नहीं जा सकता था। आबादी की लगभग 60 फीसदी संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। इस आबादी के कमोबेश सक्रिय बने रहने से एक और बड़ी त्रासदी टल गई। जब लॉकडाउन लगा, तब गेहूं की फसल कटाई के चरण पर आ गई थी। भारतीय किसानों ने वैसे भी आपदाओं से दो-दो हाथ नियमित अंतराल पर करने की आदत डाल रखी है। ज्यादातर किसान निडरता से खेतों में जुटे रहे और लॉकडाउन समाप्त होने तक गल्ला मंडियों, गोदामों और अपने घरों तक में खूब भंडारण कर दिया। सकल घरेलू उत्पाद में भले ही कृषि क्षेत्र का अंशदान घट गया हो, पर  कृषि का यह योगदान देश में अन्न के लिए मचने वाले भावी उपद्रव व अशांति को टालने में कामयाब रहा।

लॉकडाउन की पहली निर्धारित अवधि समाप्ति की बाट जोह रहे शहरी व कस्बाई कामगार, मजदूर व अनेक छोटे-मोटे व्यवसायी इसकी अवधि फिर से बढ़ने से आशंकित व आक्रोशित हो गए। तब तक तमाम धर्मार्थ संस्थाएं व उदारजन इन करोड़ों लोगों को भोजन-पानी उपलब्ध कराते रहे थे। फिर अफवाहों की आंधी सोशल मीडिया से चलने लगी कि यह लॉकडाउन अनिश्चित समय तक चलेगा। गांव में रहने वाले अपने स्वजनों से मिलने व वहां ज्यादा सुरक्षा की उम्मीद में लौट चले। सिर पर पोटली रख, सीने से बच्चों को लगाए पैदल ही लौट जाने का क्रम चला। एक अनुमान के अनुसार, उस दौर में करीब दस करोड़ लोग सड़कों पर थे। भूख, प्यास, बीमारी झेलते हजारों किलोमीटर की यात्रा तय करते गए। मजबूर सरकार ने बाद में विशेष श्रमिक रेल गाड़ियां, बसें चलाकर घर-गांव पहुंचने में लोगों की मदद की। लॉकडाउन ने निजी क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया। असंगठित क्षेत्र में बगैर पंजीकरण काम करने वाले करोड़ों लोग थे ,जो रोजी-रोटी के मोहताज हो गए। नौबत ऐसी आ गई थी कि ‘जान है, तो जहान है’ के सिद्धांत पर सरकारें काम करने लगी थीं। फिर धीरे-धीरे डेढ़ महीने बाद एक-एक करके लॉकडाउन में रियायतें शुरू हुईं। रियायतें जरूरी थीं, ताकि जान भी बची रहे और जीविका भी। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था पर लॉकडाउन का असर सामने आने लगा, सरकार बारी-बारी से गतिविधियों को मंजूरी देती गई। यह  हमारे इतिहास में दर्ज है कि वर्क फ्रॉम होम, ई-कॉमर्स के प्लेटफॉर्म और मोबाइल नेटवर्क ने हमें गर्त में जाने से कैसे बचाया।

हम कैसे भूल जाएं, शुरुआत में न जांच आसान थी और न इलाज। 23 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश से कोविड के सैंपल पुणे जांच के लिए भेजे जाते थे। पूरे देश में ज्यादातर जांच केंद्रों का कोई अर्थ नहीं रह गया था। सभी को बस कोरोना महामारी ही नजर आ रही थी, बाकी बीमारियों की चर्चा गायब थी। मास्क निर्माण बहुत सीमित था। पीपीई किट का तो नाम भी बहुत कम लोगों ने सुना था। उस समय सैनिटाइजर भी ज्यादा नहीं बनते थे। ऑक्सीजन सिलेंडर व वेंटिलेटर तो अच्छे-अच्छे नामचीन अस्पतालों में ही मिलते थे, वहां भी सीमित संख्या में। हम विदेश की ओर देखने लगे थे और फिर बाद में हमने खुद बनाना शुरू किया। आज हम कोरोना से लड़ने की सामग्रियां अन्य विकासशील जरूरतमंद देशों को निर्यात करने लगे हैं। अस्पताल और दवा क्षेत्र बहुत हद तक विकसित हो चुके हैं। विश्व की 80 प्रतिशत दवाएं यहां निर्मित और निर्यात हो रही हैं। लॉकडाउन ने हमारी जीवन शैली व जीवन दर्शन, दोनों को प्रभावित किया है। संयम, श्रम, अनुशासन, स्वल्पाहार जैसे नैतिक पाठ लोग पढ़ना भूल गए थे। लॉकडाउन के दौर में घरों में बंद लोगों को आशा की किरणें इन्हीं मानवीय गुणों में नजर आने लगीं। निजी व आसपास की सफाई के प्रति जो लापरवाह थे, अब सजग हो गए हैं। नदियों में गंदगी बहाना हमारी संस्कृति का हिस्सा लगता है, लेकिन हमने पहली बार लॉकडाउन के एक माह में ही ऋषिकेश से वाराणसी तक गंगा-जल को निर्मल होते देखा। जलचर सक्रिय हो गए। अनेक जगहों पर जंगली जानवर सड़कों तक आने लगे। जालंधर से हिमालय, नंदा देवी की बर्फीली चोटियां नजर आने लगीं। आगरा में लॉकडाउन की अवधि में आंधी आई और तेज वर्षा हो गई, फिर तेज धूप खिली, तब ड्रोन कैमरे से किले और ताज की ली गई तस्वीरें आज भी अविश्वसनीय सी लगती हैं। वर्ष 1569 में बनकर तैयार हुआ किला जितना लाल तब लगता रहा होगा, वैसा ही तस्वीरों में लगने लगा। लॉकडाउन के सन्नाटे में एक ऐसा समय भी आया, जब न्यूनतम मूलभूत जरूरतें बहुत सिमट गईं, आने वाला कल एक स्वप्न सा लगने लगा। चोरी, छिनैती, डकैती, दुश्मनी, अपहरण, हत्या दुर्घटनाएं तो जैसे फंतासी उपन्यास की विषय-वस्तु लगने लगीं। घमंड से चूर हो रहे इंसानों की हेकड़ी एक अदृश्य वायरस ने निकाल दी और न जाने कितने पाठ पढ़ा दिए। अजीब-अजीब भय थे। एक खबर अमेरिकी मीडिया से छनकर आई कि वहां धनाढ्य लोग बड़ी संख्या में बंदूकें व कारतूस खरीद रहे हैं, उन्हें आशंका हो गई थी कि भूखे-प्यासे लोग समूह में हमले कर खाने-पीने का सामान लूटेंगे। यह आशंका भारत में भी थी, लेकिन सेवाभावियों से भरे इस देश ने सबको बचा लिया। तब अफवाहों का बाजार भी गरम था। कई लोग जमाखोरी में लगे थे। दूध-सब्जी, दवा जैसी जरूरी चीजें प्रशासन और पुलिस ने सभी लोगों को उपलब्ध कराने की युद्धस्तर पर जिम्मेदारी संभाल रखी थी। लोग बिना बाल कटाए रह गए। कम से कम कपड़ों में काम चलाने लगे। अच्छे-महंगे कपड़े, जेवर के प्रति लगाव ही मानो खत्म हो गया। एक खुशी यह भी है कि यह अदृश्य वायरस सामाजिक समरसता की ऐसी क्रांति ले आया कि भिश्ती, मुंशी, हाकिम, सब बचने के लिए एक ही नाव पर सवार हो गए और अच्छे-बुरे अनुभवों से धनी हुए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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