स्वामी अवधेशानंद गिरी, आचार्य महामंडलेश्वर, जूना अखाड़ा
जन्म लेना और फिर अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करते-करते मर जाना जीवन की परिभाषा नहीं है, मनुष्य जीवन की तो कतई नहीं। मनुष्य के रूप में जन्म की शास्त्रों में प्रशंसा ऐसे ही नहीं की गई है। देवता भी मनुष्य जीवन प्राप्त करने को तरसते हैं। इसका कारण है, इस जीवन में छिपी अनन्त संभावनाएं। स्वयं को सही रूप में जानना इस जीवन की सफलता है। इसे आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, मुक्ति, निर्वाण, इष्ट प्राप्ति आदि कई नामों से संबोधित किया जाता है। आत्मोन्नति ही मनुष्य का ध्येय है, लक्ष्य है। इस आत्मोन्नति का मूल साधन धर्म है। धर्म के बिना जीवन शून्य है। धर्मत्व जीवन का नियामक है। धर्म ज्ञान होने से ही मनुष्य अन्य सभी प्राणियों से श्रेष्ठ है। सभी जीव धर्म के द्वारा ही न केवल रक्षित हैं, बल्कि परिचित भी हैं। मनुष्य इस विषय में अनेक अंशों में स्वाधीन है। अन्य जीव प्रकृति के अधीन हैं। अत: धर्मसाधना के लिए मनुष्य शरीर ही सबसे उपयुक्त है।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि केवल मनुष्य मात्र होने से ही उसे धर्म ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता, क्योंकि आज भी ऐसे लोग हैं जो न तो धर्म से परिचित हैं और न ही धर्म का अनुशीलन करते हैं। जो मनुष्य धर्म का अनुशीलन करते हैं, यथार्थ में वे ही मनुष्य हैं। और, जो आहार, निद्रा, भय व मैथुन आदि में रत हैं वे मनुष्य शरीर में पशु हैं। अत: मनुष्य जीवन प्राप्त होने पर धर्मज्ञान प्राप्त करना प्रधान कत्र्तव्य है। प्रभु ने असीम कृपा कर मानव को वह शक्ति दी है, जिससे उन्नति की चरम सीमा पर पहुंचा जा सकता है। इसी साधना-क्षमता के कारण मनुष्य सृष्टि की श्रेष्ठतम रचना है।
सौजन्य - पत्रिका।
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