कब टूटेगा यह अपवित्र गठजोड़: हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था आपराधिक तत्वों के घुसपैठ के कारण दूषित हो गई (अमर उजाला)

प्रकाश सिंह  

मुंबई पुलिस कमिश्नर के पद से हटाए गए परमबीर सिंह ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिखकर आरोप लगाया है कि राज्य के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने शीर्ष पुलिस अधिकारियों को हर महीने सौ करोड़ रुपये की उगाही का लक्ष्य दिया था। संभवतः यह देश में पहला मामला है, जब एक पुलिस महानिदेशक रैंक के अधिकारी ने किसी मौजूदा गृहमंत्री पर उगाही करने के लिए दबाव डालने का आरोप लगाया है।



इससे यही संदेश जाता है कि शीर्ष स्तर के कुछ पुलिस अधिकारी अपने राजनीतिक आकाओं की कठपुतली बने रहते हैं। वास्तव में यह मामला बहुत गंभीर है। यह कहा जा सकता है कि जब पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता है, तभी इस तरह की बातें सामने आती हैं, वरना बहुत-सी बातें दबी रहती हैं। नेता भी खाते रहते हैं, पुलिस अधिकारी भी खाते रहते हैं और नौकरशाही भी खाती रहती है। सबका धंधा चलता रहता है, देश की संपत्ति लुटती है, तो लुटती रहे। लेकिन अब देखाना होगा कि परमबीर सिंह ने कितना भेद उजागर किया और उनकी खुद की इसमें कितनी संलिप्तता थी, ये बातें तो जांच के बाद ही सामने आएंगी।



सबसे जो महत्वपूर्ण बात है, वह है पुलिस, राजनेता और नौकरशाही की मिलीभगत। दो दशक से ज्यादा समय हो गए हैं, इस विषय पर वोहरा कमेटी की एक रिपोर्ट आई थी। उस रिपोर्ट में वोहरा साहब ने बहुत ज्यादा नहीं लिखा था, लेकिन उसमें जो संलग्नक थे, उसमें डायरेक्टर इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट थी, डाइरेक्टर सीबीआई की रिपोर्ट थी और कुछ अन्य केंद्रीय जांच एजेंसियों की रिपोर्टें थीं। उन रिपोर्टों में बहुत महत्वपूर्ण तथ्य थे। उनमें लिखा था कि पुलिस, राजनेता और नौकरशाही की मिलीभगत राज्य की वर्तमान व्यवस्था को निष्प्रभावी कर देती है और एक समानांतर सरकार चलती है, जहां-जहां इस तरह का गठजोड़ है। उस रिपोर्ट पर संसद में काफी हंगामा हुआ था और सरकार ने एक नोडल कमेटी का गठन किया था, जिसका काम था कि वह समय-समय पर बैठक करके इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए जो जरूरी कदम होंगे, उसके बारे में सरकार को बताएगी। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ हुआ नहीं, और यह गठजोड़ जैसा का तैसा चल रहा है और चलता रहेगा। इसके टूटने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।


इसकी एक मुख्य वजह है कि राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग ज्यादा आ गए हैं। अगर जनप्रतिनिधियों के ऊपर संगीन मामले दर्ज हों, तो राजनीतिक शुचिता या इस गठजोड़ को तोड़ने की कल्पना कैसे की जा सकती है! मैंने एक किताब पढ़ी थी, जिसमें बताया गया था कि राजनीतिक दल चुनाव में टिकट देने से पहले यह देखते हैं कि किस व्यक्ति के चुनाव जीतने की संभावना ज्यादा है। उस लेखक ने लिखा था कि हमारे शोध से यह बात सामने आई है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों में जीतने की संभावना ज्यादा होती है, क्योंकि वह साम-दाम-दंड-भेद का हथकंडा अपना कर अपने वोट बैंक को सुरक्षित कर लेता है। जबकि ईमानदार आदमी काम के बल पर वोट मांगता है। लेकिन आज का मतदाता इतना स्वार्थी हो गया है कि वह उन्हीं लोगों को वोट देता है, जो लंद-फंद करके उसके काम करे।


उसे प्रत्याशी की ईमानदारी से कोई लेना-देना नहीं होता है। इस तरह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था दूषित होती चली जा रही है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण अगर आप आज की तारीख में देखना चाहें, तो एक राज्य में एक व्यक्ति, जिसे जेल के भीतर होना चाहिए, वह मुख्यमंत्री बना बैठा है। उत्तर प्रदेश में भी कुछ मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में लूटपाट चलती रही है। खैर, इनके मामले अब दफना दिए गए हैं। ऐसे कई मामले अन्य प्रदेशों में भी अतीत में रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने 60 पेज के अपने स्यूसाइड नोट में सुप्रीम कोर्ट के जजों और राजनेताओं के खिलाफ लिखा तथा सबकी पोल खोली। कहने का तात्पर्य यह है कि आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था आपराधिक तत्वों के घुसपैठ के कारण दूषित हो गई है और यही लोग सत्ता में हैं। सारी शक्ति इन्हीं के पास है। अगर आप इस अपवित्र गठजोड़ को तोड़ने की बात करेंगे, तो भला ये ऐसा कैसे होने देंगे!


इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए कोई सकारात्मक पहल नहीं हो रही है। अभी उत्तर प्रदेश में विकास यादव का प्रकरण सामने आया था, उसमें भी यही बात थी। उसमें एक आईजी संलिप्त पाए गए थे, एक वरिष्ठ नौकरशाह का भी नाम आ रहा था। लेकिन सारे मामले को रफा-दफा कर दिया गया। विकास यादव जैसे दुर्दांत अपराधी राजनीतिक वरदहस्त मिलने पर ही खड़े होते हैं। हर प्रदेश में ऐसे गठजोड़ हैं। अब मुंबई का यह गठजोड़ सामने आया है। एक अधिकारी, जिसे पद से हटाया गया, उसका करियर खत्म हो गया, तो उसे लगा कि हम तो डूब ही गए, तो क्यों न दूसरे को भी डुबा दिया जाए। तब उसने ये सारी बातें खोली हैं।


चूंकि इन दिनों संस्थानों की विश्वसनीयता संदेह में है, ऐसे में किससे उम्मीद की जा सकती है! फिर भी इस मामले का सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेना चाहिए और किसी जज या ईमानदार अधिकारी को इसकी जांच की जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। न्यायिक जांच तो सबसे बेहतर होती, लेकिन उसमें सालों-साल लग जाते हैं। इसलिए किसी ईमानदार अधिकारी को यह जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए, ताकि दो-चार महीनों में वह इसकी रिपोर्ट दे दे।


पहले तो तथ्यों की जांच होनी चाहिए, लेकिन जांच से पहले जो बात समझ में आती है, वह यह कि मुंबई में यह अपवित्र गठजोड़ लंबे समय से भयंकर रूप से जारी है और उसमें शिवसेना लिप्त है, क्योंकि परमबीर सिंह ने कहा है कि मैंने मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और राकांपा प्रमुख शरद पवार को बता दिया था, और ऐसा लगा कि मेरे बताने से पहले से ही उन्हें सब कुछ मालूम था। यानी पूरी महा विकास अघाड़ी सरकार पर आरोप लगाया गया है। लेकिन परमबीर सिंह की बात हम तब ज्यादा सम्मान से सुनते, जब वह पद पर रहते हुए इन भ्रष्टाचारों का खुलासा करते। लेकिन पद से हटाए जाने के बाद वह आरोप लगा रहे हैं, तो संदेह की सुई उन पर भी टिकती है। यदि पद पर रहते हुए उन्होंने इस मामले को सार्वजनिक किया होता, तो जनता में उनकी बड़ी इज्जत होती और शिवसेना के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो जाता।


सौजन्य - अमर उजाला।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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