संदीप घोष, (ब्लॉगर, लेखक और इंडस्ट्री एक्सपर्ट)
ज्यादातर राष्ट्र अपने युद्ध विजय दिवस को यादगार के तौर पर मनाते हैं। भारत में 16 दिसम्बर को विजय दिवस मनाया जाता है, जिस दिन वर्ष 1971 में भारत ने पाकिस्तान को परास्त कर युद्ध जीता था। हालांकि कुछ युद्ध जीतने में अधिक समय लग जाता है। जैसे प्रथम विश्व युद्ध चार साल जबकि द्वितीय विश्व युद्ध छह साल चला था। इसी प्रकार कोविड-19 को भी विश्व युद्ध (जैविक) कहा जा रहा है। लॉकडाउन के एक साल बाद भी हम इससे जीत नहीं पा रहे हैं। इस युद्ध में जीत की निर्णायक घोषणा से पूर्व हमें अब भी काफी लंबा सफर तय करना है। परन्तु इन 12 महीनों में काफी प्रगति हुई है और हमने बहुत कुछ सीखा है। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय है-वैक्सीन बनाना। दुनिया के कई देशों को वैक्सीन उपलब्ध करवाने में भी भारत अग्रणी भूमिका निभा रहा है। इससे भविष्य के प्रति आशा की किरण दिखाई देती है।
कोरोना वायरस ने बिना किसी भेदभाव के हरेक को संक्रमण का शिकार बनाया। अमीर-गरीब से लेकर देश की सीमाओं को भी पार किया। इसलिए विश्व को इस ग्रह के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में सामने आए कोरोना से जंग के लिए एकजुट होना ही पड़ा। इस प्रकार मानव जाति को ''वसुधैव कुटुम्बकम का अर्थ समझ आया। भारत में हमने पाया कि स्वास्थ्य संबंधी आपात काल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे जितना ही गंभीर विषय है। यह किसी देश को विभिन्न मोर्चों पर एक साथ प्रभावित कर सकता है, केवल लोगों की जान को ही नहीं, खतरा और भी मोर्चों पर हो सकता है।
एक दूसरे की मदद, हिम्मत और हौसले ने दिलाई जीत
महामारी केवल अर्थव्यवस्था को ही कमजोर नहीं करती बल्कि बाहरी ताकतें भी हम पर हावी होने की कोशिश करती हैं। लद्दाख में भारत-चीन सीमा पर तनाव इसका एक उदाहरण है। जिस विशेषता के चलते हम इस अप्रत्याशित संकट से उबर पाए, वह है आत्म निर्भरता और मानवता की भावना, जिसे कोटि-कोटि नमन! लॉकडाउन के शुरूआती दिनों जिंदगी की रफ्तार रुक सी गई है, जिसकी हमने कभी कल्पना नहीं की थी। आम लोग एक दूसरे की मदद के लिए आगे आए। दूध वाला, सब्जी वाले और छोटे किराना दुकानदारों ने खाद्य आपूर्ति श्रृंखला सुचारू बनाए रखी। जनता के इन्हीं सामूहिक प्रयासों ने अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों द्वारा जताई गई खाद्य संकट और भुखमरी जैसी तमाम आशंकाओं को निर्मूल साबित कर दिया। हालांकि ये सब केवल मानवता के सिद्धान्तों की जीत नहीं है। शुरुआती अनुभव ने हमारा आत्म विश्वास बढ़ाया है और विभिन्न मोर्चों पर राष्ट्रीय क्षमता भी बढ़ी है, जो पहले इस प्रकार स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देती थी। प्रशासनिक मशीनरी और जन स्वास्थ्य तंत्र हरकत में आए और युद्ध स्तरीय दक्षता के साथ काम किया। विफलताओं की चर्चा ज्यादा होती है लेकिन कई बार उपलब्धियां अधिक होती हैं। आज ये उपलब्धियां ही हमें विश्व के समक्ष मिसाल के तौर पर प्रस्तुत कर रही हैं। दूसरा, इससे डिजिटल भारत रणनीति को गति मिली है। शहरों से भारी संख्या में लोगों के गांव को पलायन के बवाजूद ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाए रखा। इससे ग्रामीण इलाकों में मांग बढ़ी और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मदद मिली। इस प्रकार भारत उच्चतम जीडीपी वृद्धि की आशा करने में सक्षम है (अगले राजकोषीय वर्ष 21-22 में 11 प्रतिशत की वृद्धि)।
इसी प्रकार डिजीटल मोर्चे पर देखा जाए तो 'वर्क फ्रॉम होम' और रिमोट वर्किंग से कार्य करने के तरीकों बदलाव आया। डिजीटल लेन-देन में अचानक बढ़ोत्तरी देखी गई। इसका लाभ यह हुआ कि कर अदायगी में वृद्धि हुई है और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हुई है। 90 के दशक में जैसे आईटी बूम आया था ठीक वैसे ही इस बार भारत में डिजीटल बूम आया है, परिणाम स्वरूप भारत कौशल विकास और नई शिक्षा नीति के लिए समुचित प्रारूप बनाने और सहायक नियमन करने में कामयाब हो सका है।
ऐसे लाभों की सूची लंबी है। यह स्थिति ठीक वैसी ही है कि ''गिलास आधा भरा है या आधा खाली।'' हमें गिलास आधा भरा हुआ दिखा और हमने संकट को अवसर में बदल दिया। कोविड-19 और लॉकडाउन ''अग्नि परीक्षा'' साबित हुए। कोविड का सबसे बड़ा असर यह हुआ कि हमारा आत्म विश्वास बढ़ा। यही है नया भारत, जिसकी ओर विश्व आशा भरी नजर से देख रहा है।
अमीर-गरीब के बीच खाई बढ़ी-
कोरोना महामारी ने गरीब व अमीर के बीच की खाईं को और बढ़ा दिया। लॉकडाउन के दौरान जहां अमीर मालामाल हो गए तो वहीं गरीब कंगाल हो गए। गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने वाली संस्था ऑक्सफैम ने इनइक्वालिटी वायरस रिपोर्ट जारी की है।
35% बढ़ी अरबपतियों की संपत्ति लॉकडाउन में
12.2 करोड़ महिलाओं की छिन गईं नौकरी लॉकडाउन के दौरान
1.7 करोड़ लोगों की नौकरियां गई लॉकडाउन में
1.7 लाख लोगों की नौकरी गई हर घंटे अप्रेल माह में
84% घरों को आर्थिक समस्याओं से गुजरना पड़ा इस दौरान
1 घंटे में मुकेश अंबानी ने जितने कमाए, उतना कमाने में मजदूरों को 10 हजार साल लगेंगे
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