आखिर अभिजीत को मिला न्याय, बांग्लादेश को धन्यवाद ( अमर उजाला)

तस्लीमा नसरीन  

बांग्लादेश को धन्यवाद, क्योंकि छह साल बाद ही सही, उसने ब्लॉगर अभिजीत की नृशंस हत्या के मामले को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया है। इस बात का दुख जरूर है कि अभिजीत के पिता अजय राय आज यह दिन देखने के लिए जीवित नहीं हैं। उन्होंने शायद इस दुख में ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया होगा कि बांग्लादेश में अभिजीत को न्याय नहीं मिलने वाला। अभिजीत की मां भी इस दुख के साथ इस दुनिया से चली गई। दरअसल अभिजीत जैसी प्रतिभा का इस तरह चले जाना बहुत बड़ी क्षति था, जिसकी भरपाई संभव नहीं। निर्दोष होने के बावजूद उस लेखक और ब्लॉगर को अपने ही खून में सने सड़क पर गिरे रहना पड़ा था। 



उन्होंने कोई अन्याय या किसी पर अत्याचार नहीं किया था। सामाजिक परिवर्तन और व्यक्ति के मानस के विकास के लिए, देश को अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने के लिए, लोगों की बेहतरी के लिए अभिजीत लगातार काम करते रहे थे। जिस देश को वह बेहतर ढंग से बदलना चाहते थे, उसी देश में उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। जो लोग बांग्लादेश में अज्ञान और अंधविश्वास का अंधेरा बनाए रखना चाहते थे, उन्हीं लोगों ने अंधेरे से बाहर निकलकर आपादमस्तक आलोकित एक व्यक्ति की निर्ममता से जान ले ली थी। जिन भी लोगों ने तब ब्लॉगर अभिजीत की लाश देखी होगी, वे शर्तिया तौर पर कांप गए होंगे। हालांकि हमें मालूम है कि कुछ लोगों ने वह दृश्य देखकर ताली बजाई होगी। 



अभिजीत हत्याकांड मामले में अदालत ने अब पांच लोगों को फांसी की सजा सुनाई है, जबकि एक को उम्रकैद की सजा दी है। इसके बाद भी कट्टरवादी हिंसा पर ताली बजाने वालों की संख्या क्या सचमुच घटी है? इसके उलट कट्टरवादियों की आबादी वहां दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। धार्मिक प्रवचन देने वाले लोग जब-जब कहते हैं कि उदार चिंतकों की हत्या करना फर्ज है, तब-तब तालियां बज उठती हैं। पिछले कई दशकों से बांग्लादेश में इन तालियों की गूंज सुनी जाती है। कट्टरवादी हत्यारों की मंशा उदार चिंतन पर रोक लगाने, अभिव्यक्ति के अधिकार पर प्रतिबंध लगाने, गणतंत्र को विफल करने और व्यक्ति स्वतंत्रता को बाधित करने की थी। अभिजीत, अनंत, निलय, बाबू, दीपन, समाद, जुलहास, तनय आदि उदार चिंतकों को निशाना बनाया गया, ताकि लोग डरकर अलग विचार व्यक्त न करें, जनता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग न करे। कट्टरवादियों को स्त्रियों के समान अधिकार की बात पसंद नहीं। वे नहीं चाहते कि कोई मानवाधिकार शब्द का उच्चारण भी करे। वे नहीं चाहते कि धर्म के मुद्दे पर कोई अलग राय व्यक्त करे। 


टेलीविजन पर मैंने अभिजीत के हत्यारों को देखा था, जैसे कि गुलशन कैफे में कहर बरपाने वालों को भी देखा था। वे दूसरे आम लोगों की तरह ही दिखते थे। जाहिर है कि जैसी बर्बरता को उन्होंने अंजाम दिया, उसके लिए लंबे समय तक उन्हें सिखाया-पढ़ाया गया होगा कि विधर्मियों को मार डालने पर उन्हें बहिश्त में जगह मिलेगी। धार्मिक कट्टरवाद की शिक्षा आज इतनी प्रबल हो गई है कि आम लोग बहिश्त में जगह पाने के लिए एक क्यों, सैकड़ों लोगों की हत्या कर सकते हैं। बहिश्त में प्रवेश पाने की उनकी इच्छा सैकड़ों लोगों की जान से अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसा नहीं है कि ये हत्यारे अशिक्षित या मूर्ख हैं। जैसा कि गुलशन कैफे पर कहर बरपाने वालों को हमने देखा भी, कि वे विश्वविद्यालय में पढ़े मेधावी छात्रों में से थे। मदरसे से विश्वविद्यालयों तक सर्वत्र कट्टरता का यह जहर फैल गया है। 


यह देखने की जरूरत है कि यह जहर कहां से आ रहा है, इसे कौन फैला रहा है। साफ है कि जब तक कट्टरता फैलाने वाले लोगों को पकड़ा नहीं जाएगा और उन्हें सख्त सजा नहीं दी जाएगी, तब तक हत्यारों में से कुछ को फांसी की सजा देने से भी तस्वीर नहीं बदलेगी, क्योंकि हत्याकांडों को अंजाम देने वाले तो मोहरे हैं, जिन्हें पैसे और बहिश्त के लालच में फंसाया तथा हिंसा-हत्या के लिए उकसाया जाता है। यह कोई रहस्य नहीं है कि कई देशों में जिहाद फैलाने के लिए जिहादी गुरु ऐसे युवा मुस्लिमों का चुनाव करते हैं, जो धर्म के मामले में कट्टर होते हैं। यह सिर्फ बांग्लादेश की कहानी नहीं है, कमोबेश पूरी दुनिया की सच्चाई यही है। राजनीतिक इस्लाम ने आज पूरी दुनिया में भयावह रूप ले लिया है। उदार इस्लाम के जरिये, वैज्ञानिक सोच के सहारे, ज्ञान-बुद्धि और तर्कशक्ति से और मानवता की शिक्षा से अगर राजनीतिक इस्लाम को अप्रासंगिक न किया गया, तो मानवता का भविष्य अंधकारमय रहने वाला है। इस घुप्प अंधेरे में रोशनी दिखाने जो भी आएगा, उसका अंत अभिजीत जैसा ही होगा। 


बांग्लादेश में पिछले तीन दशक से धार्मिक कट्टरवाद की जिस भीषण शिक्षा का प्रसार किया गया है, उसे फांसी और उम्रकैद की कुछ सजाओं से खत्म नहीं किया जा सकता। जिहादी कर्मकांड पर अगर सचमुच अंकुश लगाना है, तो जिहाद पैदा करने वाली फैक्टरियों में ताला लगाना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो 1971 में अस्तित्व में आए एक संभावनाशील देश का असमय अंत देखने के लिए हमें मानसिक रूप से तैयार रहना होगा। दीपन और अभिजीत हत्याकांड मामले में आए अदालत के फैसले के बाद कट्टरवादी हत्याकांडों को अंजाम देना बंद कर देंगे, यह मानने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि अदालत द्वारा फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद भी हत्यारों के चेहरे पर भय नहीं दिख रहा था। शायद वे मान रहे हों कि जिस बहिश्त के लिए उन्होंने यह काम किया, उस बहिश्त में प्रवेश करने का दरवाजा बस खुलने ही वाला है।


बांग्लादेश की स्थिति आज यह है कि लेखक जो लिखना चाहते हैं, वह लिख नहीं पा रहे, बाउल जैसा गाना चाह रहे, वैसा गा नहीं पा रहे, स्त्रियां जो पहनना चाहती हैं, वैसी पोशाक पहन नहीं पा रहीं, कलाकार जिस तरह का नाटक पेश करना चाहते हैं, वैसा कर नहीं पा रहे, विचार-बुद्धि संपन्न व्यक्ति जो कुछ कहना चाह रहे हैं, वह कह नहीं पा रहे। यह कैसी विडंबना है कि आम लोग धार्मिक कट्टरवाद और हिंसा से भयभीत हैं, लेकिन ऐसी हिंसा को अंजाम देने वाले लोग फांसी और उम्रकैद से भयभीत नहीं हैं। जबकि मानवता के प्रति आस्था जताने वाले लोग भयभीत हैं। किसी भी देश के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं। 


सौजन्य - अमर उजाला।

Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment