डॉ. चंद्रकांत लहारिया
गर्भवती महिला और होने वाले (और उसके बाद भी) बच्चे के पालन-पोषण की जिम्मेदारी पारम्परिक तौर पर भारत में केवल गर्भवती महिला या ज्यादा से ज्यादा घर की अन्य महिला सदस्यों की मानी जाती है। देखा जाता है कि पत्नी के गर्भधारण के बाद बच्चे के होने वाले पिता का दैनिक कामकाज पूर्व की तरह यथावत चलता रहता है। अध्ययनों में पाया गया है कि भारतीय पुरुष, गर्भवती पत्नियों की देखभाल, बच्चे के जन्म की योजना और फिर उसकी देखभाल में बहुत ही कम वक्त देते हैं। यह काम परिवार की अन्य महिला सदस्यों का माना जाता है।
यही वजह है कि जब क्रिकेटर विराट कोहली के बाद कॉमेडी शो होस्ट कपिल शर्मा ने भी बच्चे के जन्म के समय, पत्नी व बच्चे की देखभाल के लिए काम से छुट्टी लेने का फैसला किया, तो यह चर्चा का विषय बना। ये कुछ अच्छे उदाहरण हंै, जिन्हें हमें नए समय के लिहाज से कुछ रूढि़वादी परम्पराओं की पड़ताल करने के लिए इस्तेमाल करने चाहिए। आइए, गर्भवती पत्नी और नवजात शिशु की देखभाल में पिता की जिम्मेदारी पर विचार करें।
चिकित्सकीय और वैज्ञानिक साक्ष्यों की भरमार है, जो तीन चीजों की तरफ इशारा करते हैं। पहला, मां और शिशु एक ही इकाई हैं। उन्हें अलग नहीं समझा जाना चाहिए। बिना स्वस्थ गर्भवती महिला के स्वस्थ बच्चे का पैदा होना संभव नहीं है। दूसरा, हालांकि गर्भधारण सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है (और कोई बीमारी नहीं है), लेकिन गर्भधारण के कुछ स्वास्थ्य संबंधी जोखिम अवश्य होते हैं। इसलिए गर्भवती महिलाओं और होने वाले बच्चे, दोनों के अच्छे स्वास्थ्य के लिए, नियमित स्वास्थ्य देखभाल की जरूरत होती है। तीसरा, भ्रूण और शिशु के जीवन के पहले 1000 दिन काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। इसमें गर्भावस्था के 9 माह यानी 270 दिन और जन्म के बाद दो वर्ष यानी 730 दिन शामिल हंै। इस पूरी अवधि में मां की सेहत, भ्रूण और तत्पश्चात शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास का मुख्य आधार होते हैं। बच्चे के करीब 80 फीसदी मस्तिष्क का विकास इन्हीं शुरुआती 1000 दिनों में होता है। अगर इस दौरान मां और बच्चे की पर्याप्त देखभाल नहीं की गई, तो बच्चे की उम्र के दो साल बाद कितने भी अतिरिक्त प्रयास कर लें, इस अवधि की भरपाई नहीं हो सकती।
संयुक्त परिवार की बरसों पुरानी व्यवस्था के धीरे-धीरे खत्म होने और बढ़ते एकल परिवारों ने इस चुनौती को और बढ़ा दिया है। एकल परिवारों में सिर्फ पति और पत्नी ही होते हैं। इसलिए शिशु और पत्नी की देखभाल में पिता की भूमिका ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है। इसके अन्य सामाजिक पहलू भी हैं। देखा गया है कि कामकाजी महिलाओं को गर्भधारण के बाद नौकरी और शिशु की देखभाल में से किसी एक को चुनना होता है। महिलाएं अक्सर बच्चे के जन्म के बाद नौकरी पर नहीं लौट पाती हैं। बच्चे की देखभाल में अगर पिता भी साथ दे, तो महिलाएं सशक्त होंगी और कामकाजी वर्ग में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी। इसके लिए सरकारी और निजी क्षेत्र में भी नीतिगत पहल की जा सकती है, जैसे पिता को 'पितृत्व अवकाश' दिया जाए। इस अवकाश के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति न हो, अवकाश विदेशों की तरह पर्याप्त संख्या में दिया जाए। देश में हमें गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशु की देखभाल में पुरुषों की भागीदारी बढ़ाना सुनिश्चित करना होगा और ऐसा संभव है।
(लेखक सार्वजनिक स्वास्थ्य, टीकाकरण और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ)
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