By प्रकाश सिंह
मुंबई पुलिस से जुड़े हाल के विवादास्पद प्रकरण का सबसे बड़ा सबक यह है कि पुलिस व्यवस्था में व्यापक सुधारों की जरूरत है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे सुधारों को लेकर न तो केंद्र सरकार और न ही राज्यों की सरकारें कोई प्रतिबद्धता दिखा रही हैं. इसका नतीजा यह है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. यदि सचिन वझे प्रकरण की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने ईमानदारी से की, तो सारी बातें हमारे सामने आ जायेंगी.
अभी जो स्थिति हमारे सामने आयी है, वह यह है कि जिस नापाक गठजोड़ की बात कई सालों से हम करते आ रहे हैं, उसे तोड़ा जाना चाहिए, लेकिन हमारी सरकारें इस दिशा में कोई भी ठोस कदम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं. यह नापाक गठजोड़ है नेता का, नौकरशाही का, पुलिस का और अपराधी का. ये सभी इस गठजोड़ के जरिये एक-दूसरे का फायदा उठाते हैं. मतलब यह कि इन सभी की जेब भरती रहे और ये सभी बचे भी रहें.
इस गंभीर मसले के बारे में बहुत पहले से लिखा जा रहा है. इस संबंध में विभिन्न समितियों की रिपोर्टें और संस्तुतियां भी हैं कि क्या किया जाना चाहिए, लेकिन कोई कोशिश नहीं हो रही है. इसकी वजह यह है कि अब नेता खुद ही अपराधी हो गया है. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट बताती है कि हमारी लोकसभा में 43 प्रतिशत ऐसे जन-प्रतिनिधि बैठे हैं, जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि है.
ये किसी विदेशी मीडिया या संस्था का लिखा हुआ नहीं है कि कोई कह दे कि किसी निहित स्वार्थ के कारण ऐसा बताया जा रहा है. एडीआर हमारे देश की एक प्रतिष्ठित संस्था है, जिससे विद्वान और ईमानदार लोग जुड़े हुए हैं. आपराधिक छवि या पृष्ठभूमि के सांसदों के बारे में विश्लेषण उनका है. अब सवाल यह है कि जब ऐसे लोग संसद में बैठे हैं, तो आपराधिक गठजोड़ को तोड़ने की पहल कौन करेगा. इसको तोड़ने का अर्थ तो यह होगा कि उनको नुकसान होगा, उनकी पोल खुलेगी. ऐसा कौन नेता चाहेगा?
यह सच है कि चाहे नेता सदन के भीतर हों या बाहर, उनमें अपराधियों की संख्या बहुत बड़ी है. चुनाव में जीतने की ज्यादा उम्मीद वैसे लोगों की होती है, जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि होती है. विश्लेषक बताते हैं कि स्वच्छ छवि के व्यक्ति के जीतने की संभावना कम होती है. जो जितना बेईमान होगा, वह उतना ही साम-दाम-दंड-भेद के प्रयोग से अपनी जीत को हासिल करेगा.
ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. चुनाव प्रक्रिया में भी सुधार की बड़ी जरूरत है, लेकिन न तो चुनाव आयोग इस पर गंभीर है और न ही सरकार. चुनाव प्रक्रिया में सुधार की पहल करना चुनाव आयुक्तों का दायित्व है, किंतु हमारे चुनाव आयुक्त ऐसे सुधार की बात तब करते हैं, जब वे सेवामुक्त हो जाते हैं. यही काम वे पद पर रहते हुए कर सकते हैं और उन्हें ऐसा करना चाहिए.
अब आते है सचिन वझे के मामले पर. फिलहाल तो यह साफ दिख रहा है कि इसमें सत्ता पक्ष के नेताओं और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की मिलीभगत है. वझे एक बहुत छोटे स्तर का अधिकारी, सहायक सब इंस्पेक्टर है. किसी राज्य में इस स्तर के अधिकारी को थाने का प्रभार भी नहीं दिया जा सकता है. ऐसे अधिकारी को किसी छोटी चौकी का प्रभार दिया जा सकता है. जब इतना छोटा अधिकारी ऐसा बड़ा काम कर सकता है, तो यह बेहद गंभीर बात है.
काम भी ऐसा कि एसयूवी में जिलेटिन रख कर उसे देश के सबसे बड़े उद्योगपति के घर के सामने खड़ा कर दिया जाता है, उसमें एक पत्र रखा जाता है कि अंबानी इतनी बड़ी रकम बिट्क्वाइन क्रिप्टोकरेंसी के जरिये दें. गाड़ी के पुराने मालिक की हत्या हो जाती है आदि आदि. इतना बड़ा आपराधिक काम सचिन वझे जैसा आदमी अपने विवेक से या अपने स्तर पर नहीं कर सकता है. इसमें वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की संलिप्तता अवश्य ही है.
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी तब तक ऐसा नहीं करेंगे, जब तक उन्हें राजनीतिक संरक्षण और निर्देश नहीं है. उदाहरण के लिए, अगर उद्योगपति से सौ करोड़ रुपये की उगाही होती, तो आधा पार्टी के पास जाता और बाकी रकम का आपस में बंटवारा कर लिया जाता. यह खेल नहीं हो पाया और बीच में मामले का खुलासा हो गया.
यदि यह षड्यंत्र सफल हो जाता, तो संभावना है कि ऐसा ही कुछ होता. यह अनुमान के आधार पर मैं कह रहा हूं. पूरा मामला तो एनआइए की जांच से ही सामने आ सकेगा. अलबत्ता, यह भी इस बात पर निर्भर करेगा कि अगर वह सच को बाहर लाना चाहेगी, तभी पूरा सच उजागर होगा.
इस प्रकरण को हमें व्यापक परिदृश्य में देखना चाहिए. हमारे देश में कई ऐसे बड़े नेता हैं, जिन्होंने राजनीति में रह कर अकूत धन अर्जित किया है. यह सबके सामने है. इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, पर किसी का कुछ नहीं बिगड़ता. कुछ अत्यधिक बेईमान सरकारों में भी काबिज हैं.
ऐसा इसलिए है कि इन नेताओं और इनकी पार्टियों के समर्थन से सरकारों के बनने-बिगड़ने का खेल चलता रहता है. राजनीतिक स्वार्थों को साधने के लिए सच को दफन कर दिया जाता है. ऐसे में हम जांच एजेंसियों की क्षमता या क्षमता के अभाव पर अफसोस करें या राजनीति को रोएं या फिर भ्रष्ट व आपराधिक नेताओं को सत्ता में लानेवाली जनता पर दुख जताएं? क्या जनता को नहीं दिख रहा कि राजनीतिक पार्टियां या राजनेता क्या और कैसे काम कर रहे हैं? क्या जनता का भी कोई नैतिक आदर्श नहीं रह गया है?
हमें सारा दोष केवल पुलिस व्यवस्था की खामियों पर नहीं थोपना चाहिए. खास कर तब, जब हमारी सत्ता में, सरकारों में इतनी गड़बड़ियां हैं और उन्हीं के अधीन पुलिस तंत्र को रख दिया गया है. सुधार तो सरकारों का काम है. हमारा सुझाव यह है कि पुलिस तंत्र को बाहरी दबाव से मुक्त किया जाए और उसे स्वायत्त रूप से काम करने दिया जाए.
जनता को भी ईमानदारी को महत्व देना चाहिए, अन्यथा उसकी शिकायत का कोई मतलब नहीं रह जाता है. मीडिया को भी शिकायत करने से पहले आत्ममंथन भी करना चाहिए. हमने जिन्हें कभी साइकिल पर चलते देखा है, आज वे चैनलों के मालिक बन बैठे हैं. कुल मिला कर, हमें कई स्तरों पर बेहतरी की कोशिश करनी है और यह जल्दी होना चाहिए़.
सौजन्य - प्रभात खबर।
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