World Sparrow Day: ओ री चिरैया, नन्हीं-सी चिड़िया...अंगना में फिर आजा रे (अमर उजाला)

ज्ञानेन्द्र रावत  

आज गौरय्या अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। यदि बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से संबद्ध रहे विख्यात पक्षी वैज्ञानिक आर. जे. रंजीत डैनियल,असद रफी रहमानी और एस. एच. याह्या की मानें, तो हमारी बदलती जीवन शैली और उनके आवासीय स्थानों के नष्ट हो जाने ने गौरैया को हमसे दूर करने में अहम भूमिका निभाई है। ग्रामीण अंचलों में यदा-कदा उसके दर्शन हो पाते हैं, लेकिन महानगरों में उसके दर्शन दुर्लभ हैं। बहुमंजिली इमारतों का इसमें अहम योगदान है। कारण, गौरैया 20 मीटर से अधिक उंचाई पर उड़ ही नहीं पाती। अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ भी इसकी पुष्टि करता है। गौरतलब है कि गौरैया एक घरेलू चिड़िया है, जो सामान्यतः इंसानी रिहायश के आसपास ही रहना पसंद करती है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंध स्पैरो, डेड-सी या अफगान स्क्रब स्पैरो, यूरेशियन स्पैरो और रसेट या सिनेमन स्पैरो-ये छह प्रजातियां पाई जाती हैं। 

घरेलू गौरैया को छोड़कर अन्य सभी उप कटिबंधीय और समशीतोष्ण क्षेत्रों में पाई जाती हैं। खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली गौरैया की तादाद आज भारत  ही नहीं, यूरोप के कई बड़े देशों यथा-ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी में तेजी से घट रही है। नीदरलैंड में तो इसे दुर्लभ प्रजाति की श्रेणी में रखा गया है। गौरैया की घटती तादाद के पीछे खेतों में कीटनाशकों का छिड़काव भी प्रमुख कारण है। कीटनाशकों के चलते खेतों में छोटे-पतले कीट, जिन्हें आम भाषा में सुण्डी कहते हैं, जिन्हें गौरैया जन्म के समय अपने बच्चों को खिलाती है, वह अब उसे नहीं मिल पाते हैं। रंजीत डैनियल के अनुसार, गौरैया धूल स्नान करती है। यह उसकी आदत है। वह शाम को सोने से पहले जमीन में तश्तरी के आकार का एक गड्ढा खोदकर उसमें धूल से नहाती है। इससे उसके पंख साफ रहते हैं और उनमें रहने वाले कीट-परजीवी मर जाते हैं। कंक्रीटीकरण के चलते शहरों में उसे धूल नहीं मिल पाती। मानवीय गतिविधियों और रहन-सहन में हुए बदलावों के चलते उसे न तो शहरों में भोजन आसानी से मिल पाता है, न वह आधुनिक किस्म के मकानों में घोंसले बना पाती है। 

शहरों में बने मकानों में उसे भोजन ढूंढना बहुत मुश्किल होता है। शहरों में मिट्टी की ऊपरी सतह, जिसमें नरम शरीर वाले कीड़े रहते हैं, मलबे, कंक्रीट और डामर से ढंकी होने के कारण नहीं मिल पाते। यही कारण है कि गौरैया शहरों से दूर हो गई है और उसकी तादाद दिनोंदिन घटती जा रही है। ऐसा लगता है कि मानवीय जीवन से प्रेरित गौरैया के बिना आज घर का आंगन सूना है। हमारी घरेलू गौरैया यूरेशिया में पेड़ों पर पाई जाने वाली गौरैया से काफी मिलती है। देखा जाए, तो केवल छोटे कीड़े और बीजों के ऊपर निर्भर तकरीब 4.5 इंच से सात इंच के बीच लंबी और 13.4 ग्राम से 42 ग्राम के करीब वजन वाली घरेलू गौरैया कार्डेटा संघ और पक्षी वर्ग की चिड़िया है। इसका रंग भूरा-ग्रे, पूंछ छोटी और चोंच मजबूत होती है। हमारे देश में जहां तक इसकी तादाद का सवाल है, सरकार के पास इससे संबंधित कोई जानकारी नहीं है। 


आज सरकार में ऐसा कोई नेता नहीं है, जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील हो और उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपवाद थीं। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीबन 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचान कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया था। देखा जाए, तो गौरैया को बचाने हेतु आज तक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। केवल 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाने से कुछ नहीं होने वाला। ‘हेल्प हाउस स्पैरो’ के नाम से समूचे विश्व में चलाए जा रहे अभियान को लेकर सरकार की बेरुखी चिंतनीय है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख है कि इस बारे में सब मौन हैं। ऐसे हालात में गौरैया आने वाले समय में किताबों में ही रह जाएगी।

सौजन्य - अमर उजाला।

Share on Google Plus

About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments:

Post a Comment