प्रांजल शर्मा
प्रौद्योगिकी क्षेत्र इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसे अकेले पुरुषों के हाथों में रहने देना ठीक नहीं है। अफसोस कि रोजमर्रा की जिंदगी में तकनीक की महती आवश्यकता के बावजूद भावी प्रौद्योगिकी के निर्माण में महिलाओं की भागीदारी पर्याप्त नहीं है। दुनिया के हर देश और उद्योग जगत में यही चलन देखा जा रहा है।
वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) द्वारा जारी 'जेंडर गैप रिपोर्ट 2021' में प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कई खामियां बताई गई हैं। चौथी औद्योगिक क्रांति के चलते कई तरह के जॉब खत्म हुए हैं तो कई नई नौकरियों का सृजन भी हुआ है। हालांकि भावी नौकरियों में महिलाओं की संख्या न के बराबर है और 2018 से इसमें कोई बढ़ोतरी नहीं देखी गई है। डब्ल्यूईएफ रिपोर्ट में ही शामिल लिंक्डइन डेटा के हवाले से बताया गया है कि 'बाधाएं दूर करने वाले' यानी 'डिसरप्टिव' तकनीकी कौशल से जुड़ी भूमिकाओं में लैंगिक भेद साफ दिखाई देता है। यह अंतर कितना है, इसी का अंदाजा लगाने के लिए रिपोर्ट में तेजी से बढ़ते जॉब रोल आठ श्रेणियों में बांटे गए - मार्केटिंग, सेल्स, पीपुल एंड कल्चर, कंटेंट प्रोडक्शन, प्रोडक्ट डवलपमेंट, क्लाउड कम्प्यूटिंग, इंजीनियरिंग, डेटा और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआइ)। लिंक्डइन द्वारा जुटाए गए डेटा से पता चलता है कि क्लाउड कम्प्यूटिंग, इंजीनियरिंग, डेटा और एआइ श्रेणी में लैंगिक असमानता अधिक है, क्योंकि इनमें 'डिसरप्टिव' तकनीकी कौशल में माहिर पेशेवरों जैसे फुल स्टैक डवलपरों, डेटा इंजीनियरों और क्लाउड इंजीनियरों की जरूरत होती है। केवल क्लाउड कम्प्यूटिंग में जरूर महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। फरवरी 2018 में यह जहां मात्र 0.2 फीसदी थी, 2021 में बढ़ कर 14.2 प्रतिशत हो गई। वहीं डेटा और एआइ में महिलाओं की भागीदारी 32.4 प्रतिशत और 0.1 प्रतिशत है।
डब्ल्यूईएफ रिपोर्ट से जाहिर है कि उनके दावों के बावजूद ज्यादातर कंपनियां अब भी महिलाओं को जॉब के समान अवसर उपलब्ध नहीं करवा रही हैं। विश्व के हर कोने में प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नौकरी देने के मामले में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों को ही प्राथमिकता दी जाती है, भले ही उनकी योग्यता समान हो। प्रौद्योगिकी के बल पर,जहां बिजनेस मॉडल, प्रबंधन सिद्धांत, सांगठनिक ढांचा और विकास रणनीतियां बदल रही हैं, वहीं महिलाओं को इस क्षेत्र में नौकरी देने के मामले में अब भी पुराना ढर्रा चला आ रहा है।
कंटेंट क्रिएशन, मानव संसाधन और मीडिया में महिला कर्मचारियों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है। जबकि आर्टिफिशल इंटेलीजेंस विशेषज्ञ, डेटा साइंटिस्ट और एनालिटिक्स कंसलटेंट जैसे पदों पर महिलाओं की संख्या मात्र 25 से 35 प्रतिशत अथवा इससे भी कम है। श्रम बाजारों के संकेत महिलाओं और छात्रों के लिहाज से काफी चिंताजनक हैं और तकनीकी पदों पर नियुक्ति में लैंगिक असमानता जारी है। डब्ल्यूईएफ विश्लेषण के मुताबिक 'साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स क्षेत्रों यानी 'स्टैम' में महिलाओं की संख्या को अक्सर 'आपूर्ति समस्या' बताया गया, जबकि इसे व्यापक स्तर पर मौजूद लैंगिक भेदभाव के रूप में देखा जाना चाहिए और यही महिला कर्मचारियों के जॉब बदलने की प्रवृत्ति का ***** है।Ó
लिंक्डइन के ग्लोबल पब्लिक पॉलिसी प्रमुख स्यू ड्यूक कहते हैं, 'अधिकांश तेजी से उभरती भूमिकाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है, जिसका मतलब यह है कि महामारी से जंग में आगे बढ़ते हुए हम प्रतिनिधित्व की समस्या को बढ़ाते जा रहे हैं। ये वह भूमिकाएं हैं जिनका तकनीक के तमाम पहलुओं को आकार देने में अहम योगदान है। सीधे-सीधे कार्यानुभव और औपचारिक शैक्षणिक योग्यता के बजाय कौशल और संभावनाओं पर पेशेवरों का आकलन इसके लिए सबसे जरूरी है। तभी हम अपनी अर्थव्यवस्थाओं और समुदायों को और अधिक समावेशी बना पाएंगे।'
इसका सीधा अर्थ यह है कि कंपनियों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। मौजूदा दौर में सदियों से चले आ रहे भेदभाव को जारी रखना न्यायोचित नहीं है। सतत सीखने की प्रक्रिया में पूर्व में हासिल की गई शैक्षणिक योग्यता का बहुत अधिक महत्त्व नहीं रह जाता। कुल मिलाकर यह महिला एवं पुरुषों दोनों के लिए एक प्रकार का सोपान है, जिसके बाद उन्हें भावी जॉब के लिए अपने आपको कौशल से परिपूर्ण करना है। महिलाएं भी भूमिका बदलने और कौशल सीखने में पुरुषों के समान उत्साह और तत्परता दिखा सकती हैं। नियोक्ताओं का दायित्व है कि वे महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर दें।
तकनीक संबंधी नौकरियों में महिलाओं के साथ भेदभाव समाज में व्याप्त लैंगिक असमानता का ही एक अंग है। 2021 में आया यह अंतर कई बड़ी जनसंख्या वाले देशों में राजनीति में बढ़ती लैंगिक असमानता में भी परिलक्षित होता है। 156 सूचीबद्ध देशों में से आधे से अधिक देश सुधार दर्शा रहे हैं, फिर भी विश्व भर में महिला सांसदों की संख्या मात्र 26.1 प्रतिशत है तथा महिला मंत्रियों की संख्या मात्र 22.6 प्रतिशत। मौजूदा हालात को देखते हुए लगता है कि राजनीतिक मोर्चे पर लैंगिक असमानता मिटाने में करीब 145 साल लग सकते हैं जबकि डब्ल्यूईएफ की २०२० की रिपोर्ट में यह अवधि 95 साल बताई गई थी। यानी इसमें 50 प्रतिशत से अधिक समय और लगेगा। वहीं आर्थिक स्तर पर लैंगिक असमानता में थोड़ा सुधार देखा गया है। इसे खत्म होने में करीब 267 साल लगेंगे।
इन सबके बीच अच्छी खबर यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य में लैंगिक असमानता करीब-करीब खत्म होने को है। शिक्षा के क्षेत्र में 37 देश लैंगिक समानता हासिल कर चुके हैं। स्वास्थ्य के संदर्भ में लैंगिक असमानता 95 प्रतिशत से अधिक खत्म हो चुकी है।
(लेखक आर्थिक विश्लेषक, सलाहकार और किताब 'इंडिया ऑटोमेटिड' के राइटर हैं)
सौजन्य - पत्रिका।
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