जलवायु परिवर्तन पर हो सार्थक बहस (प्रभात खबर)

By दुनू राय 

 

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर वर्तमान सरकार द्वारा जो बातें कही जा रही हैं, वह दशकों से हो रही हैं. इंदिरा गांधी के जमाने से ही यह बात होती आ रही है कि पर्यावरण विनाश की जिम्मेदारी विकसित देशों पर अधिक है, लेकिन बीच में हमारी सरकार यह स्वीकार करने लग गयी. विकसित देशों के दबाव में आकर हमने स्वीकारना शुरू कर दिया कि हम उत्सर्जन में 20-25 प्रतिशत की कमी कर देंगे.



यह नयी बात छेड़ दी गयी. विकसित और विकासशील देश में फर्क है और निश्चित ही ज्यादा जिम्मेदारी विकसित देशों की है, लेकिन यही बात देश के अंदर लागू की जाए, तो यहां भी कुछ लोग विकसित हैं और कुछ लोग विकासशील हैं. कुछ लोग अविकसित भी हैं. हमारे देश का औसत कार्बन फुटप्रिंट दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले काफी कम है. भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन कम है, लेकिन देश के अंदर जो लोग विकसित हैं, उनकी ऊर्जा खपत और कार्बन उत्सर्जन में भागीदारी विकसित देशों के समृद्ध लोगों के बराबर ही है.



अमीरों के रहन-सहन, चाल-चलन का हिसाब निकालें, तो वह दुनिया के अन्य समृद्ध लोगों के बराबर हैं. ऐसे में देश के भीतर भी विकसित लोगों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए. जब सरकार कहती है कि हम उत्सर्जन में कटौती करेंगे, तो यह दबाव अमीर पर आना चाहिए. अगर वे 80 प्रतिशत घटायेंगे, तो भी देश का औसत 20 प्रतिशत बैठेगा. मध्यम वर्ग और कम आय वर्ग पर अधिक जोर नहीं डालना चाहिए. गरीबों को सचेत करना तो ठीक है, लेकिन अमीरों को भी सचेत होना चाहिए.


देश में कई ऐसे परिवार हैं, जिनके पास एक से अधिक गाड़ियां ही नहीं, बल्कि गाड़ियों का काफिला होता है. गाड़ियों को रखने की एक सीमा तय होनी चाहिए. इससे ऊर्जा की खपत में कमी आयेगी. कार्बन उत्सर्जन में कटौती और विकसित देशों की अधिक जिम्मेदारी तय करने के बारे में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का तर्क बहुत सराहनीय है.


भारत लंबे अरसे से यह बात दोहराता आया है. एक तर्क दिया जाता है कि जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव कम आय वाले देशों पर अधिक होगा. सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन के असर से कोई अछूता नहीं रहेगा. मान लें, अगर समुद्र तट बढ़ जाता है, तो वहां टूरिस्ट होटल भी प्रभावित होंगे. जलवायु परिवर्तन से सबसे गरीब सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, इसमें सच्चाई नहीं है और यह तर्क विकसित देशों पर कभी अंकुश नहीं लगाते हैं. अगर पेट्रोल खत्म हो गया, तो सबसे अधिक असर गाड़ी पर चलनेवाले पर होगा, न कि साइकिल पर चलनेवाले पर.


मेरा मानना है कि अगर आपको प्रकृति के अनुसार चलना है, तो आपको गरीबों से सीखना चाहिए कि वे कैसे प्रकृति के साथ तालमेल बिठा कर चलते हैं. अगर आप अपनी जीवनशैली और समझ उनके बराबर करेंगे, तभी यह पृथ्वी बच पायेगी, अन्यथा हम अपने विनाश के लिए आगे बढ़ रहे हैं. हम मानने को तैयार नहीं है कि हमें अपनी जिम्मेदारी लेनी है. यही कुतर्क वैश्विक स्तर पर देखा जा रहा है. हर कोई दूसरों पर जिम्मेदारी टालने की बात कह रहा है. विकसित देश परमाणु समझौते, शस्त्र समझौतों आदि में भी यही बात बार-बार करते हैं, वे अपनी जिम्मेदारी लेने की बजाय दूसरों से पहले शुरुआत करने की शर्त रखते हैं.


वैश्विक स्तर पर ये उत्सर्जन के लिए हर देश का कोटा बनाते हैं. उत्सर्जन का औसत पूरे देश का होता है, यानी जब पूरी आबादी के हिसाब से कोटा निकाला जाता है, तो चीन दूसरे और भारत पांचवें स्थान पर आ जाता है. अमेरिका पहले स्थान पर है. इसका मतलब है कि जो जितना बड़ा देश है, उतना ज्यादा उसका कोटा तय होगा. यह बिल्कुल उसी तरह हुआ कि एक बस में 40 लोग यात्रा कर रहे हैं और दूसरी गाड़ी में कोई अकेले यात्रा कर रहा है, तो कोटा बस का ज्यादा हो जाता है,


लेकिन सवाल है कि कितना पेट्रोल और डीजल जला कर 40 लोग सफर कर रहे हैं और कितना जला कर अकेला व्यक्ति सफर कर रहा है. जब तक प्रति व्यक्ति खपत की बात नहीं की जायेगी, तब तक यह बात स्पष्ट नहीं होगी. जब बात स्पष्ट होगी, तो चीन दूसरे और भारत पांचवें नंबर नहीं रहेगा. इस प्रकार 150 देशों में भारत 60वें-62वें स्थान पर पहुंच जायेगा. इसलिए, प्रति व्यक्ति की बात जान-बूझ कर नहीं की जाती है.


टिकाऊ विकास की बात बार-बार कही जाती है. इसके दो मायने हो सकते हैं. पहला कि आप इस तरह से विकास करें कि पृथ्वी टिकी रहे, प्रकृति का नुकसान न हो, यानी प्रकृति का ढांचा टिकाऊ बना रहे. दूसरा अर्थ होता है कि हम जिस तरह से विकास कर रहे हैं, वह टिकाऊ है और पृथ्वी को उसका बोझ लेना पड़ेगा. पृथ्वी उसका बोझ लेती रहे, तो उसका विकास चलेगा.


ये दोनों अलग-अलग सोचने के तरीके हैं. अमीर जब टिकाऊ विकास की बात करता है, तो उसका सोचने का तरीका अलग होता है, लेकिन जब गरीब कहता है कि मैं जिस नजरिये से देख रहा हूं, वह टिकाऊ है, तो वह प्रकृति के बारे में सोचते हुए कह रहा होता है. गरीब जिस तरह से जीवन जीता है, इसमें जल, जंगल, जमीन सबके टिकाऊ रहने की बात होती है. टिकाऊ विकास के संदर्भ में विश्व स्तर पर जो बहस और बात चल रही है, उसके संदर्भ और मायने सबके लिए अलग-अलग हैं. हर चीज को प्रभावी बनाने की बात करते समय हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति कितना सह सकती है.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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