जब भी चुनाव निकट आते हैं, राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रलोभनों का पिटारा खोल देती हैं। इसकी बड़े पैमाने पर शुरूआत तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने की थी और तब से यह सिलसिला देश में हर आने वाले चुनाव के साथ-साथ बढ़ता ही जा रहा है। अब तक तो सरकारें मतदाताओं को लुभाने के लिए विभिन्न रियायतों और सुविधाओं के अलावा शराब, नकद राशि, साडिय़ां, चावल, गेहूं, आटा, बल्ब, रंगीन टैलीविजन, लैपटॉप, मंगलसूत्र, मिक्सर ग्राइंडर आदि देने की घोषणा करती रही हैं परंतु अब इनमें और वस्तुएं जुड़ गई हैं।
चार चुनावी राज्यों पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और एक केंद्र शासित प्रदेश पुड्डुचेरी के चुनावों के सिलसिले मेंं विभिन्न पाॢटयों ने अपने-अपने घोषणापत्र जारी किए हैं जिनमें से तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक और विपक्षी द्रमुक की चुनावी प्रलोभनों की घोषणाओं से सरकारी खजाने पर पडऩे वाले बोझ को लेकर बहस छिड़ गई हैै।
अपने घोषणापत्रों में दोनों दलों ने मतदाताओं को मुफ्त वाशिंग मशीन, सभी को मकान, सौर कुकर, शिक्षा ऋण माफी, सरकारी नौकरी, कोविड प्रभावित राशनकार्ड धारकों को 4000 रुपए मासिक, नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण, विभिन्न ऋणों की माफी देने के लम्बे-चौड़े वायदे किए हैैं। इन घोषणाओं के विरुद्ध एक जागरूक मतदाता ने मद्रास हाईकोर्ट में याचिका दायर करके अदालत से पार्टियों को लम्बे-चौड़े चुनावी वायदे करने से रोकने का आग्रह किया है।
इस पर 31 मार्च को मद्रास हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीशों न्यायमूर्ति एन. किरूबाकरण और न्यायमूर्ति बी. पुगालेंढी पर आधारित खंडपीठ ने राजनीतिक पार्टियों को ‘लोक लुभावन वायदों का रिवाज’ बंद करने की सलाह देते हुए कहा :
‘‘लोक-लुभावन वायदे करने के मामले में हर राजनीतिक पार्टी एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहती है। यदि एक पार्टी गृहिणियों को 1000 रुपए मासिक देने की बात कहती है तो दूसरी पार्टी 1500 रुपए मासिक देने की घोषणा कर देती है और तीसरी पार्टी इससे भी आगे बढ़ जाती है।’’
‘‘यह सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है जिस कारण लोगों के मन में यह बात घर कर गई है कि वे तो मुफ्त के माल से ही जिंदगी बिता सकते हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि मुफ्त के इस माल के वितरण का विकास, रोजगार या खेती से कोई संबंध नहीं है। मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए जादुई वायदों के जाल में फंसा कर लुभाया जाता है। यह तमाशा दशकों से जारी है जो हर पांच वर्ष बाद दोहराया जा रहा है।’’ ‘‘हर उम्मीदवार को चुनाव पर कम से कम 20 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं क्योंकि अधिकांश लोग अपना वोट बेचने के कारण भ्रष्ट हो चुके हैं। सिवाय बांटे गए मुफ्त के कुछ उपहारों के बाकी सब वादे वादे ही रह जाते हैं।’’
माननीय न्यायाधीशों ने आगे कहा, ‘‘लोगों को मुफ्त के उपहार देने पर खर्च किया जाने वाला धन यदि रोजगार के अवसर पैदा करने, बांधों के निर्माण और कृषि के लिए बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करने के लिए इस्तेमाल किया जाए तो निश्चित रूप से समाज का उत्थान और राज्य की प्रगति होगी।’’ माननीय न्यायाधीशों ने यह भी कहा, ‘‘आज आर्थिक दृष्टिसे लाभप्रद न रहने के चलते अधिकांश किसानों ने कृषि का परित्याग कर दिया है जिससे यह व्यवसाय अनाथ होकर रह गया है।’’ इन्हीं अकल्पनीय और अव्यावहारिक वायदों के झांसे में आने से बचाने के उद्देश्य से लोगों को चेताने के लिए तमिलनाडु में मदुरै से निर्दलीय उम्मीदवार आर. सरवनन ने भी अपना अनोखा घोषणापत्र जारी किया है।
उसने अपने चुनावी घोषणापत्र में चांद की मुफ्त सैर कराने, मुफ्त आईफोन, हैलीकाप्टर, हर परिवार के बैंक खाते में 1 करोड़ रुपए, युवाओं को रोजगार करने के लिए 1 करोड़ रुपए, हर परिवार को तीन मंजिला मकान देने व अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को गर्मी से बचाने के लिए 300 फुट ऊंचा बर्फ का पहाड़ बनाने जैसे वादे किए हैं।
बहरहाल, न्यायमूर्ति एन. किरूबाकरण और न्यायमूर्ति बी. पुगालेंढी ने जो कुछ तमिलनाडु के बारे में कहा है वह समूचे देश पर लागू होता है। अत: चुनाव आयोग को मद्रास हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीशों की इस सलाह का संज्ञान लेते हुए यह बात यकीनी बनानी चाहिए कि राजनीतिक दल अव्यावहारिक वादे न करें। इसके साथ ही केंद्र सरकार को भी सभी पक्षों के साथ विचार-विमर्श करके लोक-लुभावन वादों पर रोक लगाने संबंधी कानून बनाना चाहिए। इससे चुनावों में भ्रष्टाचार तथा काले धन का इस्तेमाल घटने से चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों के खर्चों में भी कमी आएगी और निष्पक्ष चुनाव हो सकेंगे।—विजय कुमार
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