रोहित शिवहर
हमारे देश में बिजली पैदा करने का प्रमुख संसाधन कोयला है, पर धरती की छाती चीरकर उसे निकालने वाले मजदूरों की बदहाली जहां-की-तहां है। पिछले साल कोविड-19 के कारण देश भर में लगे ‘लॉकडाउन’ के दौरान कोयला खदानों में काम कर रहे ठेका मजदूरों का रोजगार तो कमोबेश नहीं छीना गया, पर आसपास की बदहाली ने उन्हें मौत के मुहाने पर खड़ा कर दिया। मार्च, 2020 में देश भर में कोरोना महामारी के चलते लगे संपूर्ण लॉकडाउन के दौरान जहां एक ओर देश भर के बहुत सारे कामगार अचानक सड़कों पर आ गए थे, वहीं कोयला क्षेत्रों में लगातार लॉकडाउन के दौरान भी काम चालू रहने की वजह से कामगारों का रोजगार बरकरार रहा। हालांकि कोयला खदानों में भी कुछ मजदूरों का काम प्रभावित हुआ, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। ऐसे में हमें यह नहीं समझना चाहिए कि कोयला खदान में काम कर रहे मजदूरों, खासकर ठेका मजदूरों का जीवन लॉकडाउन में आसान रहा होगा। इन ठेका मजदूरों की पहले की समस्याओं और उस पर कोरोना महामारी ने उनके जीवन को गंभीर संकट की चपेट में ले लिया था।
मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर ‘निगाही मोड़’ नाम की जगह है, जहां मुख्य सड़क के किनारे आसपास के कोयला खदानों में काम करने वाले ठेका मजदूरों की अस्थायी बस्तियां हैं। बस्ती के ठीक बगल से खुली नाली बहती है। इन बस्तियों में ज्यादातर झोपड़ियां हैं। ये घर एक-दूसरे से लगभग हाथ भर की दूरी पर बने हैं। पूरी बस्ती में शायद ही किसी घर में शौचालय की व्यवस्था होगी। इन बस्तियों में पीने व निस्तार के पानी की भी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है। इसी बस्ती में रहने वाले ठेका मजदूर वीरेन बताते हैं कि सरकार या प्रशासन उन्हें भले ही अस्थायी मानते हों, पर उनका परिवार 10-15 वर्षों से इन्हीं कोयला खदानों में मजदूरी करके जीवनयापन कर रहा है। अब यही हमारा घर है। कोल इंडिया के अंतर्गत आने वाली ‘नॉर्दर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड’ में 34,000 लोग विभिन्न कामों में लगे हैं। इनमें से 14 हजार लोग स्थायी रोजगार वाले हैं और बाकी के 20 हजार ठेका पर काम करते हैं। ठेका कामगारों को 170 से 280 रुपये तक प्रतिदिन के हिसाब से वेतन मिलता है।
ठेका मजदूर गणेश, जो ‘अम्लोरी खदान’ में कोयला निकालने का काम करते हैं, बताते हैं कि ठेकेदार से रोज का 200 से 250 रुपये, जितना भी तय होता है, उसी के अनुसार हमें वेतन मिलता है। सरकारी नियमानुसार, इन कोयला खदानों में काम करने वाले ठेका मजदूरों को सरकार ने चार श्रेणियों में बांटा है। जिनमें ‘अकुशल मजदूर,’ ‘अर्ध-कुशल मजदूर,’ ‘कुशल मजदूर’ और ‘उच्च-कुशल मजदूर’ शामिल हैं। इन्हें इसी क्रम में प्रतिदिन के हिसाब से क्रमशः 906, 941, 975-1010 रुपये वेतन देने की व्यवस्था है। पर जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है। इन्हीं खदानों में काम करने वाले ठेका मजदूर संजय (बिहार) बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान शुरुआत के महीनों में ठेकेदार ने मुझे काम पर आने से मना कर दिया था।
इसके चलते मेरा परिवार चलाना बहुत कठिन हो गया था। मुझे 200 रुपये रोजाना वेतन मिलता था, जिससे कुछ बचा पाना संभव नहीं था। उसके बाद ठेकेदार ने मेरा वेतन 220 रुपये कर दिया। किराया और बाकी चीजें महंगी हो गई हैं। ऐसे में महामारी के वक्त घर का गुजारा चलाना, कम साधन होने की वजह से हमारे लिए बहुत ही कठिन हो रहा है। अगर गलती से भी हमें यह बीमारी हो गई, तो हमें कोई उम्मीद नहीं है कि सही इलाज मिल भी पाएगा या नहीं।’ कोरोना महामारी के इतने भीषण समय में भी कोयला खदानें निरंतर चलती रहीं।
कोयला खदानों को चलाने वाले मजदूरों, खासकर ठेका मजदूरों की बदहाल जिंदगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन तो नहीं आया, उल्टे महामारी के संकट ने इनके जीवन को और भी अभावग्रस्त बना दिया। महामारी के दौरान कोयला खदान उत्पादन तो करती रही हैं और इसी वजह से हमारे और आप जैसों की बिजली की जरूरतें भी पूरी होती रहीं, पर इस पूरे समय में कोयला खदानों के मजदूरों की बदहाल जिंदगी को सरकार ने बीमारी के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। (सप्रेस)
सौजन्य - अमर उजाला।
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