आरक्षण में और बढ़ोतरी अर्थव्यवस्था पर भारी (बिजनेस स्टैंडर्ड)

जैमिनी भगवती 

आजादी के बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4) के तहत सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। आरंभ में आरक्षण की व्यवस्था 10 वर्ष के लिए होनी थी लेकिन हर 10 वर्ष के बाद उसे आगे बढ़ाने का सिलसिला चलता रहा। फिलहाल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी रोजगार, सरकारी कंपनियों और शैक्षणिक संस्थानों में नौकरी तथा सीटों के मामले में 49.5 फीसदी आरक्षण प्राप्त है। जनवरी 2019 में यानी अप्रैल-मई 2019 के लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले संसद ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 फीसदी अतिरिक्त आरक्षण को मंजूरी दे दी। इसके अलावा राज्य विधानसभाओं और लोकसभा में भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए सीटें आरक्षित हैं।

यह संभव है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए घोषित 10 फीसदी का आरक्षण शायद कुल आरक्षण को बढ़ाकर 59.5 फीसदी नहीं करे क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग और अनुसूचित जाति-जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण उसका अतिव्यापन कर सकता है। बहरहाल यदि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण लागू होता है तो संभव है कि वह सन 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों वाले पीठ के उस निर्णय का उल्लंघन कर दे जिसमें उन्होंने सभी प्रकार के आरक्षण के लिए कुल मिलाकर 50 फीसदी की सीमा तय की थी। फिलहाल 10 फीसदी अतिरिक्त आरक्षण के खिलाफ कई याचिकाएं लंबित हैं। आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण के पहले भी तमिलनाडु विधानसभा ने कुल मिलाकर 69 फीसदी आरक्षण को मंजूरी दे दी थी। अप्रैल 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले तमिलनाडु की द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक) ने राज्य के निवासियों के लिए 75 फीसदी आरक्षण का वादा किया है। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और हरियाणा पहले ही रोजगार में स्थानीय लोगों के आरक्षण की नीतियां बना चुके हैं।


देश भर में कई याचिकाएं दायर कर 50 फीसदी के ऊपर के आरक्षण को समाप्त करने की मांग की गई है। खासतौर पर 8 फरवरी को खबर आई कि सर्वोच्च न्यायालय एक ऐसी याचिका पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया है जो तमिलनाडु में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण को चुनौती देती है। परिणामस्वरूप अब तक राज्यों में मौजूदा आरक्षण के अतिरिक्त स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण के क्रियान्वयन का कानूनी दर्जा अस्पष्ट है। ऐसे आरक्षण के स्तर के पक्ष में दलील यह है कि देश में अभी भी सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से वंचितों की तादाद बहुत अधिक है।


शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का पारदर्शी और निष्पक्ष क्रियान्वयन जटिल है जिसके चलते कई कानूनी विवाद पैदा हुए। मिसाल के तौर पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक विवादित मुद्दा यह है कि आरक्षण समूचे विश्वविद्यालय स्तर पर लागू होना चाहिए या विभागीय आधार पर। यदि आरक्षण कोटा विश्वविद्यालय स्तर पर होता है तो व्यक्तिगत विभागों में यह 50 फीसदी का स्तर पार कर सकता है। एक अन्य मुद्दा यह है कि किसे क्रीमी लेयर का हिस्सा होने के कारण अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लायक नहीं माना जाए। फिलहाल क्रीमी लेयर में वे लोग आते हैं जिनकी सालाना पारिवारिक आय 8 लाख रुपये से अधिक है। गैर पिछड़ा वर्ग के लोगों को लगता है कि यदि पिछड़ा वर्ग के लोग स्वरोजगार में हैं तो उनकी आय का आकलन आसान नहीं है। उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी श्रमिक दशकों से मुंबई, दिल्ली या बेंगलूरु में किराये के मकानों में रहते हैं। उनके लिए खुद को वहां का निवासी साबित करना मुश्किल है। परिणामस्वरूप राज्यस्तरीय आरक्षण भारतीय श्रम बाजार को आर्थिक रूप से अक्षम बना सकता है। इस दौरान जो अन्याय होगा वह तो अपनी जगह है।


मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय को 15 मार्च, 2021 से 50 फीसदी सीमा के मामले पर सुनवाई करनी थी। शीर्ष न्यायालय को स्पष्ट करना चाहिए कि देश में आरक्षण के अलग-अलग स्तर नहीं हो सकते और अलग-अलग राज्य ऐसे कानून नहीं बना सकते कि रोजगार वहां के निवासियों के लिए आरक्षित होंगे। समाचार पत्रों में 19 मार्च, 2021 को प्रकाशित खबरों के मुताबिक महाराष्ट्र में राज्य के विशिष्ट आरक्षण से संबंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने चुटीले अंदाज में यह तक पूछ डाला कि क्या आजादी के बाद से कोई सामाजिक-आर्थिक प्रगति हासिल नहीं हुई?


तमाम संविधान संशोधनों, राज्य स्तरीय विधानों और न्यायालय के निर्णयों को लेकर कानूनी अनिश्चितताओं के बीच कई लोग देश में आरक्षण की नीतियों के क्रियान्वयन को लेकर भ्रमित महसूस करते हैं। यह बात शायद सबसे जानकार भारतीयों पर भी लागू होती है। केंद्र सरकार को संसद में श्वेत पत्र पेश करना चाहिए ताकि आरक्षण के क्रियान्वयन को लेकर स्पष्टता आ सके। हालांकि ऐसा होने की संभावना बहुत कम है क्योंकि आरक्षण मतदाताओं और ज्यादातर राजनीतिक दलों के लिए बहुत संवेदनशील मसला है।


भारत में आरक्षण के बारे में खुलकर बात करना बुरा माना जाता है। यदि आरक्षण में इजाफे के खिलाफ या मौजूदा स्तर का आरक्षण जारी रखने के विरोध में कुछ कहा जाए तो यह भावनात्मक दलील दी जाती है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ हजारों साल के भेदभाव को कुछ दशकों में पूरा नहीं किया जा सकता। यह सही है कि सदियों से देश में पिछड़े वर्ग का दमन और शोषण हुआ है। लेकिन मानव इतिहास में मजबूत लोगों द्वारा कमजोरों का शोषण आम रहा है। हालिया अतीत का एक उदाहरण है करीब दो सौ वर्ष के ब्रिटिश शासन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप की गरीबी।


लब्बोलुआब यह कि अतिरिक्त आरक्षण शासन मानकों को शिथिल करेगा तथा केंद्र, राज्यों और नगर निकाय स्तर के प्रदर्शन पर असर पड़ेगा। शैक्षणिक संस्थान भी अप्रभावित नहीं रह सकेंगे। मिसाल के तौर पर नैशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर ऐंड सर्विस कंपनीज ने संकेत दिया है कि उससे संबद्ध कंपनियों में से 80 प्रतिशत को लगता है कि हरियाणा के नागरिकों की पक्षधर आरक्षण नीतियां उनके कारोबार और भविष्य की निवेश योजनाओं को प्रभावित करेंगी। देश की राष्ट्रीय और राज्य सरकारें न केवल आरक्षण की मदद करती हैं बल्कि अतिरिक्त आरक्षण की मांग को प्रोत्साहन देती हैं क्योंकि रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए अर्थव्यवस्था की जमीनी समझ और निरंतर तथा ईमानदारी से मेहनत करने की आवश्यकता होती है। लब्बोलुआब यह कि भारत को धीरे-धीरे हर प्रकार के आरक्षण को खत्म करने की जरूरत है और इस दौरान उन लोगों को उचित वित्तीय सहायता मुहैया कराई जानी चाहिए जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए हैं।


(लेखक पूर्व भारतीय राजदूत एवं विश्व बैंक के ट्रेजरी प्रोफेशनल हैं)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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