चुनावी जीत के कई गुणा-भाग ( हिन्दुस्तान)

ज्योतिप्रसाद चटर्जी, पश्चिम बंगाल विशेषज्ञ, सीएसडीएस


पश्चिम बंगाल में अब तक दो चरणों में 60 सीटों पर विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। मतदाताओं के रुख अभी ठीक-ठीक नहीं आंके जा सकते, लेकिन पहले चरण में 27 मार्च को मुख्यत: जंगलमहल क्षेत्र में चुनाव हुए थे, जो पहले कभी उग्र वामपंथ के गढ़ माने जाते थे। मगर 2019 के लोकसभा चुनाव में यहां भगवा झंडा लहराया था, जिस कारण यहां की ज्यादातर सीटों पर भाजपा अपनी जीत देख रही होगी। मगर एक सच यह भी है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के रुझान अलग-अलग होते हैं और मुद्दे भी। इसका अनुभव भाजपा ने भी हाल के वर्षों में कई राज्यों में किया है। लिहाजा, तृणमूल कांग्रेस ने यहां से अपनी उम्मीदें नहीं छोड़ी होगी।

दूसरे चरण में भी 30 सीटों पर 1 अप्रैल को चुनाव हुए हैं, जिनमें पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर की नौ-नौ सीटें शामिल थीं, जो मूलत: तृणमूल के खाते में जाती रही हैं। शुभेंदु अधिकारी के दल बदलने से भाजपा को यहां कुछ सीटें मिल सकती हैं, लेकिन मतदान-केंद्रों पर मतदाता इस उलझन में रहे होंगे कि तृणमूल सरकार में तीन-तीन महत्वपूर्ण विभाग संभालने वाले और पार्टी में दबदबा रखने वाले शुभेंदु अचानक भाजपा में क्यों शामिल हो गए? प्रचार के दौरान साल 2007 के नंदीग्राम आंदोलन में शुभेंदु के योगदान को बार-बार कठघरे में खड़ा करके ममता बनर्जी ने मतदाताओं की उलझन को और बढ़ाने की कोशिश की थी। चूंकि पश्चिम मेदिनीपुर और बांकुड़ा जिले जंगलमहल के नजदीक हैं, इसलिए इन इलाकों से भाजपा को भरोसा होगा, मगर पूर्व मेदिनीपुर में अधिकारी परिवार के हावी रहने के बावजूद ममता बनर्जी को नंदीग्राम से अपनी जीत पक्की लग रही होगी। इस आत्मविश्वास की कई वजहें हैं। मसलन, निर्वाचन आयोग के आंकड़े बताते हैं कि नंदीग्राम में तृणमूल कांग्रेस को 2011 के विधानसभा चुनाव में 60.17 प्रतिशत, 2014 के लोकसभा चुनाव में 68.15 प्रतिशत, 2016 के विधानसभा चुनाव में 66.79 प्रतिशत और 2019 के लोकसभा चुनाव में 62.77 प्रतिशत वोट मिले थे। यानी, पिछले 10 वर्षों में यहां तृणमूल का वोट प्रतिशत 60 फीसदी से ऊपर ही रहा है, जो संकेत है कि लोग पार्टी पर भरोसा कर रहे हैं, किसी एक नेता पर नहीं। इसके बरअक्स, भाजपा को इन चुनावों में क्रमश: 3.39 प्रतिशत, 5.69 प्रतिशत, 5.32 प्रतिशत और 29.92 प्रतिशत वोट मिले, जबकि वाम मोर्चा को क्रमश: 34.75 प्रतिशत, 22.28 प्रतिशत, 26.49 प्रतिशत और 4.49 प्रतिशत। चूंकि इन वर्षों में तृणमूल का वोट प्रतिशत स्थिर रहा है, इसलिए माना जाता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चा के मतदाता ही छिटककर भाजपा के साथ चले गए होंगे। ऐसे में, अगर मौजूदा विधानसभा चुनाव में संयुक्त मोर्चा (वाम मोर्चा, कांग्रेस और इंडियन सेक्युलर फ्रंट का गठबंधन) 2016 का प्रदर्शन दोहरा सका (जिसकी उम्मीद इसलिए की जा रही है, क्योंकि मोर्चा ने युवा नेत्री मीनाक्षी मुखर्जी को मैदान में उतारा है), तो भाजपा को बड़ा झटका लग सकता है। इसके अलावा, दो ब्लॉक (नंदीग्राम-1 व नंदीग्राम-2) में बंटे नंदीग्राम का सामाजिक समीकरण भी भाजपा की चिंता का कारण होगा। नंदीग्राम-1 में 34.04 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, जबकि नंदीग्राम-2 में 12.12 फीसदी। भाजपा द्वारा धार्मिक ध्रुवीकरण किए जाने से माना यही जा रहा है कि यहां के मुस्लिम मतदाता तृणमूल के साथ गए होंगे। फिर, नंदीग्राम-1 इलाके में महज 2.79 प्रतिशत शहरी आबादी है और यहां की अधिसंख्य जनसंख्या अब भी गांवों में बसती है व विकास से दूर है। जबकि नंदीग्राम-2 में 4.28 फीसदी शहरी आबादी है। इस सबको तृणमूल अपने लिए मुफीद मान रही होगी, क्योंकि पार्टी सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछडे़ लोगों की नुमाइंदगी करने का दावा करती है। इन्हीं सब वजहों से ममता आत्मविश्वास से भरी हुई हैं और मतदान केंद्र से ही राज्यपाल को फोन लगाने व कई बूथों पर गड़बड़ियों की शिकायत करने के बावजूद वह दोबारा मतदान की मांग नहीं कर रही हैं। उनके शब्दों पर गौर कीजिए- हम नंदीग्राम के लिए चिंतित नहीं हैं, बल्कि लोकतंत्र के लिए चिंतित हैं। इसी आधार पर वह अफवाह भी खारिज हो जाती है, जिसमें कहा गया कि अब वह किसी अन्य सुरक्षित सीट से भी चुनाव लड़ सकती हैं। अब तो पार्टी ने भी इसका खंडन कर दिया है।

पिछले दो चरणों का ऊंचा मतदान-प्रतिशत भी सत्ता-विरोधी रुझान नहीं माना जा सकता। दोनों चरणों में 80 फीसदी से अधिक मत जरूर डाले गए हैं, लेकिन चुनाव के दिन मतदाताओं का घरों से बाहर निकलना पश्चिम बंगाल की पहचान रही है। यहां हर चुनाव में औसतन 75 फीसदी से अधिक वोट पड़ते हैं। इसीलिए ऊंचा मतदान-प्रतिशत अन्य राज्यों में जीत-हार का समीकरण बनाता है, पश्चिम बंगाल में नहीं। अब छह चरणों के चुनाव शेष हैं और ये उन इलाकों में होने वाले हैं, जिनको पश्चिम बंगाल का केंद्र कहा जाता है। बंगाल के दक्षिणी हिस्से के बीरभूम, बर्धमान, हुगली जैसे जिलों में तृणमूल कांग्रेस मजबूत स्थिति में है, तो उत्तरी हिस्से के मालदा व मुर्शिदाबाद जिलों में कांग्रेस को अपने पारंपरिक वोटरों पर भरोसा होगा। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि भाजपा खाली हाथ रह जाएगी। दार्जिलिंग (यहां तृणमूल कांग्रेस और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा शायद ही एक-दूसरे का साथ छोड़ना चाहेंगे) को छोड़ दें, तो पिछले कुछ महीनों में भाजपा ने जलपाईगुड़ी जैसे इलाकों में अपना आधार मजबूत किया है। इसका उसे लाभ मिल सकता है। मगर जिस तरह से तृणमूल के नेताओं का उसने खुले दिल से स्वागत किया, उसका फायदा उसे हर जगह मिलता नहीं दिख रहा। जाहिर है, अगले चरणों में संयुक्त मोर्चा के बैनर तले कांग्रेस भी जोर आजमाइश करती दिखेगी और वाम मोर्चा भी। तृणमूल कांग्रेस और भाजपा तो आमने-सामने होंगी ही। लिहाजा, 2019 के लोकसभा चुनाव का ट्रेंड यदि मौजूदा चुनाव में भी बना रहा, तो भाजपा को फायदा हो सकता है और करीबी  मुकाबला हम देख सकते हैं, वरना पिछले दो चरणों जैसे आरोप-प्रत्यारोप उछलते रहेंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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About न्यूज डेस्क, नई दिल्ली.

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