जुगल किशोर, वरिष्ठ जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ
अपने यहां कोरोना के नए मामले डराते हुए दिख रहे हैं। ब्राजील (रोजाना के 66,176 मामले औसतन) और अमेरिका (रोजाना के 65,624 मामले औसतन) को पीछे छोड़ते हुए भारत कोविड-19 का नया ‘हॉट स्पॉट’ बन गया है। देश में पहली बार संक्रमण के एक लाख से अधिक नए मामले बीते रविवार को सामने आए। यह शोचनीय स्थिति तो है, लेकिन फिलहाल बहुत घबराने की बात नहीं है। सोमवार को ही इसमें हल्की सी गिरावट आई है और उस दिन करीब 97 हजार नए कोरोना मरीजों की पहचान की गई। आखिर हमें घबराने की जरूरत क्यों नहीं है? असल में, मरीजों की यह संख्या इसलिए बढ़ी है, क्योंकि अब ‘जांच’ ज्यादा होने लगी है। जब जांच की रफ्तार बढ़ती है, तो नए मामलों की संख्या स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। अभी अपने यहां रोजाना 11 लाख से अधिक टेस्ट किए जा रहे हैं। यह पिछले साल की जून, जुलाई या अगस्त तक की स्थिति से भी बढ़िया है। नवंबर में ही जब दिल्ली में सीरो सर्वे किया गया था, तब करीब 50 फीसदी लोग संक्रमित पाए गए थे। कुछ जगहों पर तो इससे भी ज्यादा संक्रमण था। अगर इस आंकडे़ को संख्या में बदल दें, तो उस समय राजधानी दिल्ली में संक्रमितों की संख्या एक करोड़ से भी ज्यादा थी, जबकि आरटी-पीसीआर अथवा रैपिड एंटीजेन टेस्ट दो से तीन लाख लोगों को ही बीमार बता रहा था।
अभी संक्रमण का इसलिए प्रसार हो रहा है, क्योंकि फरवरी से लोगों का आवागमन बहुत बढ़ गया है। उस समय नए मामले कम आने लगे थे, टेस्ट भी कम हो रहे थे, वैक्सीन आने की वजह से लोग उत्सुक भी थे और उन्होंने ढिलाई बरतनी शुरू कर दी थी। अग्रिम मोर्चे पर तैनात कर्मियों को भी वापस अपने विभागों में भेज दिया गया था। इन सबसे वायरस को नियंत्रित करने के प्रयासों में शिथिलता आ गई और फिर कोरोना वायरस का ‘म्यूटेशन’ भी हुआ। चूंकि, पिछले साल मामले दबे-छिपे थे, इसलिए आहिस्ता-आहिस्ता संक्रमण फैलता दिखा। मगर इस बार लोगों का आपसी संपर्क बहुत तेजी से बढ़ा। वे बेखौफ हुए और बाजार में भीड़ बढ़ाने लगे। नतीजतन, संक्रमण में रफ्तार आ गई।
यह अनुमान है कि 15-20 अप्रैल के आसपास इस दूसरी लहर का संक्रमण अपने शीर्ष पर हो सकता है। जिस तेजी से नए मामले सामने आ रहे हैं, उससे यह आकलन गलत भी नहीं लग रहा। मगर, संक्रमण की वास्तविक स्थिति इन अनुमानों से नहीं समझी जा सकती। अगर हमने बचाव के उपायों और ‘कंटेनमेंट’ प्रयासों पर पर्याप्त ध्यान दिया, तो मुमकिन है कि संक्रमण का प्रसार धीमा हो जाए। यह समझना होगा कि जब तक सौ फीसदी टीकाकरण नहीं हो जाता अथवा सभी लोग संक्रमित होकर रोग प्रतिरोधक क्षमता हासिल नहीं कर लेते, तब तक संक्रमण की रफ्तार कम-ज्यादा होती रहेगी। अभी हर संक्रमित व्यक्ति तीन से चार व्यक्तियों को बीमार कर रहा है। हमारा यह ‘रिप्रोडक्शन नंबर’ जब तक एक से कम नहीं होगा, संक्रमण में ऊंच-नीच बनी रहेगी। एक अच्छी स्थिति यह है कि मृत्य-दर में वृद्धि नहीं हुई है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हमारा स्वास्थ्य-ढांचा पहले से बेहतर हुआ है। हम वैज्ञानिक तरीकों से कोरोना मरीजों का इलाज करने लगे हैं। टेस्ट के बजाय यदि संक्रमण की वास्तविक संख्या को आधार बनाएं, तो मृत्यु-दर एक फीसदी से भी कम होगी। देशव्यापी सीरो सर्वे भी यही बताएगा कि 60 फीसदी से अधिक आबादी में प्रतिरोधक क्षमता बन गई है, जो ‘हर्ड इम्युनिटी’ वाली स्थिति है। अब जो संक्रमण हो रहा है, वह अमूमन उन लोगों को हो रहा है, जो अब तक इस वायरस से बचे हुए थे। इसलिए ऐसे लोग जल्द से जल्द टीके लगवा लें अथवा अपनी गतिविधियों को काफी कम कर दें। इससे वे संक्रमित होंगे जरूर, पर आहिस्ता-आहिस्ता, जिससे उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होगी। असल में, वायरस की मात्रा के हिसाब से मरीज हल्का या गंभीर बीमार होता है। हर शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता अलग-अलग होती है। यदि वायरस काफी अधिक मात्रा में शरीर में दाखिल हो जाए, तो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता नाकाम हो सकती है। दोबारा संक्रमित होने अथवा टीका लगने के बाद भी बीमार होने की वजह यही है। टीका द्वारा वायरस की खुराक हमारे शरीर में पहुंचाई जाती है। जब उस सीमा से अधिक वायरस शरीर में आ जाता है, तब हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता जवाब दे जाती है। इसीलिए टीका लेने के बाद भी बचाव के तमाम उपाय अपनाने की सलाह दी जा रही है। इसी तरह, पूर्व में गंभीर रूप से बीमार मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है, जबकि हल्का संक्रमित व्यक्ति के दोबारा बीमार पड़ने का अंदेशा होता है। अपने देश में वैसे भी 90 फीसदी से अधिक मामले मामूली रूप से संक्रमित मरीजों के हैं, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता तीन से छह महीने के बाद खत्म होने लगती है। मगर एक सच यह भी है कि टीका लेने के बाद यदि कोई बीमार होता है, तो उसकी स्थिति गंभीर नहीं होगी। अभी देश के कुछ राज्यों में जिस तरह से संक्रमण बढ़ा है, वह काफी हद तक लोगों की गैर-जिम्मेदारी का ही नतीजा है। अगर सभी मरीज अस्पताल पहुंच जाएंगे, तो डॉक्टरों पर दबाव बढे़गा ही। इसीलिए मामूली मरीजों को घर पर और हल्के गंभीर मरीजों को ऐसे किसी केंद्र पर इलाज देने की वकालत की जा रही है, जहां ऑक्सीजन की सुविधा उपलब्ध हो। गंभीर मरीजों को ही अस्पताल में भर्ती किया जाना चाहिए। इससे मरीजों को बढ़ती संख्या संभाली जा सकती है। मगर ऐसा नहीं हो रहा है, और फिर से लॉकडाउन लगाने की मांग की जाने लगी है। देखा जाए, तो अभी लॉकडाउन की जरूरत नहीं है। पहली बार यह रणनीति इसलिए अपनाई गई थी, ताकि स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत किया जा सके। हम इसमें सफल रहे, और आज हमारे पास पयाप्त संसाधन हैं। जनता की गतिविधियों को रोकने का एक तरीका लॉकडाउन जरूर है, लेकिन इससे लोगों को कई अन्य तकलीफों का ही सामना करना पड़ता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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