शेखर गुप्ता
जो लोग सोचते थे कि अयोध्या-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों का एकमत निर्णय आने के बाद देश के अन्य मंदिर-मस्जिद विवाद भी समाप्त हो जाएंगे, वे वाराणसी जिला अदालत के हालिया निर्णय से हिल गए होंगे। कहा जा सकता है कि भारतीय उपमहाद्वीप मध्यकालीन इतिहास के भूत इतनी जल्दी दफन होने वाले नहीं हैं।
न्यायाधीश आशुतोष तिवारी की अध्यक्षता वाली अदालत ने एक दीवानी मामले में यह अनुरोध स्वीकार कर लिया कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) अध्ययन करके बताए कि क्या ज्ञानवापी मस्जिद मूल काशी-विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करके उसके ऊपर बनाई गई है। इस घटना ने अयोध्या-बाबरी मस्जिद मामले की याद दिला दी। इस बार शुरुआत न्यायालय ने की है।
मैं उन आशावादियों में से हूं जो यह मानते रहे कि अयोध्या के साथ ऐसे विवादों का अंत हो गया। भले ही उस फैसले से सब संतुष्ट नहीं थे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने एकमत होकर निर्णय दिया था और सभी पक्ष उसका आदर करते दिखे। अब इस ताजा निर्णय को कैसे देखा जाए?
यदि आप मुझसे इस पर एक संपादकीय टिप्पणी लिखने को कहेंगे तो शायद मैं अच्छी तरह लिखे उस फैसले के एक हिस्से को उद्धृत करना चाहूंगा।
सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों ने सन 1991 के उस उपासना स्थल(विशेष प्रावधान) अधिनियम का हवाला दिया था जिसमें कहा गया था कि 15 अगस्त, 1947 को देश की स्वतंत्रता के समय जो भी पूजा स्थल हमें मिले, उनका संरक्षण किया जाएगा। कानून में अयोध्या को अपवाद बताया गया क्योंकि वह मामला पहले ही विवादित था। न्यायाधीश ने लिखा कि इसके अलावा कोई अपवाद नहीं था और न ही वैधानिक या संवैधानिक रूप से संभव था।
यदि हम सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से सीधे पैराग्राफ उठा लें तो हमारा संपादकीय कुछ इस तरह होगा। उपासना स्थल अधिनियम का हवाला देने के बाद न्यायालय ने भविष्य के लिए कानून निर्धारण करते हुए कहा, 'पीछे नहीं लौटना हमारे संविधान के मूल सिद्धांतों की एक बुनियादी विशेषता है और धर्मनिरपेक्षता भी इनमें से एक है।'
न्यायाधीश ने आगे लिखा, 'पीछे न लौटना हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का एक विशिष्ट गुण है। संविधान हमारे इतिहास और राष्ट्र के भविष्य की बात करता है...हमें इतिहास का बोध होना चाहिए लेकिन हमें उसका सामना करते हुए आगे बढऩे की आवश्यकता है।' उस ऐतिहासिक निर्णय में न्यायाधीशों ने आगे कहा कि 15 अगस्त, 1947 को मिली आजादी घावों को भरने का अवसर थी।
इसके बाद न्यायाधीशों ने वापस उपासना स्थल अधिनियम के हवाले से जोर देकर कहा, 'संसद ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि इतिहास या उसकी भूलों का इस्तेमाल, वर्तमान या भविष्य के दमन के लिए नहीं किया जाएगा।' अदालत के फैसले को तीन बिंदुओं में समझा जा सकता है:
1. विवादित अयोध्या मामले को छोड़कर 15 अगस्त सन 1947 को देश में मौजूद सभी धार्मिक स्थलों का संरक्षण किया जाएगा।
2. यदि भविष्य में संसद अपनी समझ का इस्तेमाल करते हुए इस कानून को हटाती है या संशोधित करती है तो यह निर्णय उसकी राह रोकेगा। न्यायाधीशों ने 'पीछे न लौटने' को हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान का मूल और उसकी बुनियादी विशेषताओं का अंग बताया जिन्हें संशोधित नहीं किया जा सकता है।
3. यह निर्णय पूरे देश, सरकार, राजनीतिक दलों और धार्मिक समूहों से आह्वान था कि वे अतीत को पीछे छोड़कर आगे बढ़ें।
इस निर्णय ने ही मुझ समेत तमाम लोगों को आश्वस्त किया कि ऐसे तमाम विवादों पर अब पूर्णविराम लग गया है। अयोध्या-बाबरी मस्जिद मामले के दौरान दो नारे खूब लगाए जाते थे, 'ये तो केवल झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है' और 'तीन नहीं हैं तीन हजार।'
पहले नारे में मथुरा और वाराणसी में मंदिरों के पास बनी मस्जिदों का जिक्र था तो दूसरा कहता था कि ऐसे एक दो नहीं बल्कि करीब तीन हजार मामले हैं जहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई है। नारे के मुताबिक उन सभी जगहों के लिए आंदोलन चलेगा।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद आशा थी कि ऐसे विचारों पर पूर्णविराम लग जाएगा। आदेश की भाषा और भावना भी यही थी। इससे हम जैसे लोगों को जो अयोध्या-बाबरी विवाद के दौरान विभाजनकारी और हिंसक दु:स्वप्न से भरे तीन दशकों से गुजरे थे, उन्हें लगा कि अब यह सब दोहराया नहीं जाएगा। वाराणसी की अदालत ने कानून की ऐसी व्याख्या की है जिस पर प्रश्नचिह्न लग सकता है। इससे यह आशावाद भी धूमिल हुआ है। जाहिर है न्यायाधीश तिवारी ने या तो सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय पढ़ा नहीं है या फिर उसकी अपनी तरह से व्याख्या की है। कोई भी तार्किक न्यायाधीश या ऊपरी अदालत वाराणसी की अदालत के निर्णय को निरस्त कर देगी लेकिन कुछ सवाल तो उठते हैं।
पहला, अचानक यह बात कहां से उभरी? मथुरा मामले में भी अभी हाल ही में अदालत में अर्जी दी गई है। क्या ये कदम साझा इरादे के साथ उठाए जा रहे हैं? यदि हां तो क्या ऐसा करने वालों को विहिप, आरएसएस और भाजपा के उच्च पदस्थ लोगों का वरदहस्त प्राप्त है? आखिर में यदि वाकई ऐसा है और यदि उनका इरादा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की मूल भावना का मान नहीं रखने का है तो क्या वे किसी ऊपरी अदालत द्वारा इस आदेश को निरस्त करने के बाद भी मानेंगे?
ऐसा कुछ नहीं है जो मामले को अयोध्या आंदोलन की राह पर जाने से रोके। अब जबकि एक बार इसे आजमाया जा चुका है तो दूसरे प्रयोग में सदियां नहीं लगेंगी। इस मामले में बहुमत की चलेगी, भले ही इसके कारण एक और दशक या उससे ज्यादा समय तक खूनखराबा और उथलपुथल मची रहे। आखिर इतिहास की गलतियों को सुधारने के लिए कौन सी कीमत अधिक मानी जाएगी? 21वीं सदी के भारत में 16वीं और 17वीं सदी की लड़ाइयां दोबारा छेडऩा विनाश को न्योता देना है। यह हमारी आने वाली पीढिय़ों के भविष्य को बंधक बना लेगा।
इतिहास को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए। यही कारण है कि इसका व्यापक पठन-पाठन होता है और यह इतना राजनीतिक विषय है। परंतु इतिहास की अपनी समझ के आधार पर भविष्य को प्रभावित करने वाले निर्णयों की आलोचना करना वैसा ही है जैसे किसी एक्सप्रेसवे पर सामने देखकर गाड़ी चलाने के बजाय पीछे देखने वाले शीशे पर नजर गड़ाकर वाहन चलाया जाए। ऐसे में दुर्घटना होनी तय है। इससे आपको भी नुकसान होगा और दूसरों को भी।
सुप्रसिद्ध स्तंभकर टॉम फ्रीडमैन की 2005 में आई पुस्तक 'द वल्र्ड इज फ्लैट' के जिन हिस्सों का सबसे अधिक उल्लेख किया जाता है उनमें कहा गया है कि उन देशों, कंपनियों और संगठनों के बेहतर प्रदर्शन करने की आशा है जो अपने सपनों और स्मृतियों में संतुलन बनाकर रखते हैं।
फ्रीडमैन कहते हैं, 'मुझे प्रसन्नता है कि आप 14वीं सदी में महान थे लेकिन वह तब की बात है और यह वर्तमान है। जो समाज सपनों से ज्यादा स्मृतियों में जीते हैं, वहां ज्यादातर लोग अतीत को देखने में वक्त गंवाते हैं। वे वर्तमान का लाभ लेने के बजाय अतीत में उलझे रहते हैं और वहीं अपना गौरव तलाशते हैं। वह अतीत भी प्राय: वास्तविक नहीं होता बल्कि काल्पनिक और महिमामंडित होता है। वे बेहतर भविष्य की कल्पना करने और उसके लिए प्रयास करने के बजाय अतीत से चिपके रहते हैं।'
अयोध्या मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय हमें इस दिशा की ओर यानी भविष्य की ओर ले जाता है। वाराणसी जिला अदालत और उसके निर्णय का स्वागत करने वाले हमें उलटी दिशा में मोडऩे का प्रलोभन दे रहे हैं। निर्णय हमें लेना है।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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